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पाँचवा अधिकार]
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तथा प्रतिक्रमण नाम पूर्वदोष निराकरण करनेका है; परन्तु “मिच्छामि दुक्कडं" इतना कहनेहीसे तो दुष्कृत मिथ्या नहीं होते; किये हुए दुष्कृत मिथ्या होने योग्य परिणाम होने पर ही दुष्कृत मिथ्या होते हैं; इसलिये पाठ ही कार्यकारी नहीं है।
तथा प्रतिक्रमण के पाठमें ऐसा अर्थ है कि – बारह व्रतादिकमें जो दुष्कृत लगे हों वे मिथ्या हों; परन्तु व्रत धारण किये बिना ही उनका प्रतिक्रमण करना कैसे सम्भव है ? जिसके उपवास न हो, वह उपवासमें लगे दोषका निराकरण करे तो असम्भवपना होगा।
इसलिये यह पाठ पढ़ना किस प्रकार बनता है ?
तथा प्रोषधमें भी सामायिकवत् प्रतिज्ञा करके पालन नहीं करते; इसलिये पूर्वोक्त ही दोष है। तथा प्रोषध नाम तो पर्वका है; सो पर्वके दिन भी कितने कालतक पापक्रिया करता है, पश्चात् प्रोषधधारी होता है। जितने काल बने उतने काल साधन करने का तो दोष नहीं है; परन्तु प्रोषधका नाम करे सो युक्त नहीं है। सम्पूर्ण पर्वमें निरवद्य रहने पर ही प्रोषध होता है। यदि थोड़े भी काल से प्रोषध नाम हो तो सामायिकको भी प्रोषध कहो, नहीं तो शास्त्रमें प्रमाण बतलाओ कि - जघन्य प्रोषधका इतना काल है। यह तो बड़ा नाम रखकर लोगोंको भ्रम में डालने का प्रयोजन भासित होता है।
तथा आखड़ी लेने का पाठ तो अन्य कोई पढ़ता है, अंगीकार अन्य करता है। परन्तु पाठ में तो “ मेरे त्याग है" ऐसा वचन है; इसलिये जो त्याग करे उसीको पाठ पढ़ना चाहिये। यदि पाठ न आये तो भाषा ही से कहे; परन्तु पद्धति के अर्थ यह रीति है।
तथा प्रतिज्ञा ग्रहण करने-कराने की तो मुख्यता है और यथाविधि पालने की शिथिलता है, व भाव निर्मल होनेका विवेक नहीं है। आर्त्तपरिणामोंसे व लोभादिकसे भी उपवासादि करके वहाँ धर्म मानता है; परन्तु फल तो परिणामोंसे होता है।
इत्यादि अनेक कल्पित बातें करते हैं; सो जैन धर्म में सम्भव नहीं हैं।
इस प्रकार यह जैन में श्वेताम्बर मत है; वह भी देवादिकका व तत्त्वोंका व मोक्षमार्गादिका अन्यथा निरूपण करता है; इसलिये मिथ्यादर्शनादिकका पोषक है सो त्याज्य
है।
सच्चे जिन धर्मका स्वरूप आगे कहते हैं; उसके द्वारा मोक्षमार्गमें प्रवर्त्तना योग्य है। वहाँ प्रवर्त्तने से तुम्हारा कल्याण होगा।
-इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रमें अन्यमत निरूपक
पाँचवा अधिकार समाप्त हुआ ।।५।।
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