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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार ] [ १६५ - इस प्रकार जो त्यागी न हों, अपने धनको पापमें खर्चते हों, उन्हें चैत्यालयादि बनवाना योग्य है। और जो निरवद्य सामायिकादि कार्योंमें उपयोगको न लगा सकें उनको पूजनादि करने का निषेध नहीं हैं। फिर तुम कहोगे निरवद्य सामायिकादि कार्य ही क्यों न करें ? धर्ममें काल लगाना, वहाँ ऐसे कार्य किसलिये करें ? - उत्तर :- यदि शरीर द्वारा पाप छोड़ने पर ही निरवद्यपना हो, तो ऐसा ही करें; परन्तु परिणामोंमें पाप छूटने पर निरवद्यपना होता है । सो बिना अवलम्बन सामायिकादिमें जिसके परिणाम न लगें वह पूजनादि द्वारा वहाँ अपना उपयोग लगाता है। वहाँ नाना प्रकारके आलम्बन द्वारा उपयोग लग जाता है। यदि वहाँ उपयोगको न लगाये तो पापकार्योंमें उपयोग भटकेगा और उससे बुरा होगा; इसलिये वहाँ प्रवृत्ति करना युक्त है। तुम कहते हो कि " धर्मके अर्थ हिंसा करनेसे तो महापाप होता है, अन्यत्र हिंसा करनेसे थोड़ा पाप होता है"; सो प्रथम तो यह सिद्धान्तका वचन नहीं है और युक्तिसे भी नहीं मिलता; क्योंकि ऐसा माननेसे तो इन्द्र जन्मकल्याणकमें बहुत जलसे अभिषेक करता है, समवशरणमें देव पुष्पवृष्टि करना, चँवर ढालना इत्यादि कार्य करते हैं सो वे महापापी हुए। — - यदि तुम कहोगे उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रिया का फल तो हुए बिना रहता नहीं है। यदि पाप है तो इन्द्रादिक तो सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा कार्य किसलिये करेंगे ? और धर्म है तो किसलिये निषेध करते हो । भला तुम्हीं से पूछते हैं तीर्थंकरकी वन्दनाको राजादिक गये साधुकी वन्दनाको दूर भी जाते हैं, सिद्धान्त सुनने आदि कार्य करनेके लिये गमनादि करते हैं वहाँ मार्गमें हिंसा हुई। तथा साधर्मियोंको भोजन कराते हैं, साधुका मरण होने पर उसका संस्कार करते हैं, साधु होने पर उत्सव करते हैं इत्यादि प्रवृत्ति अब भी देखी जाती है; सो यहाँ भी हिंसा होती है; परन्तु यह कार्य तो धर्म के ही अर्थ हैं, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। यदि यहाँ महापाप होता है, तो पूर्व कालमें ऐसे कार्य किये उनका निषेध करो। और अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करते हैं, उनका त्याग करो। तथा यदि धर्म होता है तो धर्म के अर्थ हिंसा में महापाप बतलाकर किसलिये भ्रममें डालते हो ? इसलिये इस प्रकार मानना युक्त है कि जैसे थोड़ा धन ठगाने पर बहुत धन का लाभ हो तो वह कार्य करना योग्य है; उसी प्रकार थोड़े हिंसादिक पाप होनेपर बहुत धर्म - Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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