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के उपरान्त वे पंडित टोडरमलजी द्वारा संचालित धार्मिक क्रान्तिके सूत्रधार रहे। उनके नाम से एक पंथ भी चला जो गुमान-पंथके नाम से जाना जाता है।
तत्कालीन समाजमें धार्मिक अध्ययन के लिये आजके समान विद्यालय, महाविद्यालय नहीं चलते थे। लोग स्वय ही ‘सैलियों' के माध्यमसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करते थे। तत्कालीन समाजमें जो अध्यात्मिक चर्चा करने वाली दैनिक गोष्ठियाँ होती थीं उन्हें सैली कहा जाता था। ये सैलियाँ सम्पूर्ण भारत में यत्र-तत्र थीं। महाकवि बनारसीदास भी आगराकी एक सैली में ही शिक्षित हुए थे।
पंडित टोडरमलजीकी सामान्य शिक्षा भी जयपुर की एक आध्यात्मिक ( तेरापंथ) सैलीमें हुई जिसका बादमें उन्होंने सफल संचालन भी किया। उनके पूर्व बाबा बंशीधरजी उक्त सैलीके संचालक थे। गुढ़तत्त्वोंके तो पंडित टोडरमलजी स्वयंबुद्ध ज्ञाता थे। 'लब्धिसार' व 'क्षपणासार' की संदृष्टियां आरम्भ करते हुए वे लिखते हैं - “शास्त्र वि लिख्या नाहीं और बतावने वाला मिल्या नाहीं ।”
प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल ग्रंथोंको वे कन्नड़ लिपि में पढ़-लिख सकते थे। कन्नड़ भाषा और लिपि का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होने स्वयं किया। उसमें अध्यापकोंके सहयोग की संभावना भी नहीं सकती है, क्योंकि उस समय उत्तर भारत में कन्नड़ के अध्यापन की व्यवस्था दुःसाध्य कार्य था। कन्नड़ एक कठिन लिपि है, द्रविड़ परिवार की सभी लिपियाँ कठिन हैं। उसको किसी की सहायता के बिना सीखना और भी कठिन था, पर उन्होंने उसका अभ्यासकर लिया और साधारण अभ्यास नहीं-वे कन्नड़ भाषा के ग्रन्थोंपर व्याख्यान करते थे एवं उन्हें कन्नड़ लिपि में लिख भी लेते थे। ब्र. रायमल ने लिखा है :
" दक्षिण देससूं पांच सात और ताड़पत्रांविषै कर्णाटी लिपि में लिख्या इहाँ पधारे हैं, ताकं मलजी बाँचे है. वाका यथार्थ व्याख्यान करै है कर्णाटी लिपि मैं लिखि ले हैं।"
यद्यपि उनका अधिकांश जीवन जयपुरमें ही बीता, तथापि उन्हें अपनी आजीविकाके लिये कुछ समय सिंघाणा रहना पड़ा। वहाँ वे दिल्ली के एक साहूकारके यहाँ कार्य करते
थे।
१ इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका [ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, परिशिष्ट १]
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