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[मोक्षमार्गप्रकाशक
अब यहाँ विचार करो कि- दोनोंमें कल्पित वचन कौन हैं ? प्रथम तो कल्पित रचना कषायी हो वह करता है; तथा कषायी हो वही नीचपदमें उच्चपन प्रगट करता है। यहाँ दिगम्बरमें वस्त्रादि रखनेसे धर्म होता ही नहीं है - ऐसा तो नहीं कहा, परन्तु वहाँ श्रावक धर्म कहा है; श्वेताम्बरमें मुनिधर्म कहा है। इसलिए यहाँ जिसने नीची क्रिया होनेपर उच्चत्व प्रगट किया वही कषायी है। इस कल्पित कथनसे अपनेको वस्त्रादि रखने पर भी लोग मुनि मानने लगें; इसलिये मानकषायका पोषण किया और दूसरोंको सुगमक्रियामें उच्चपदका होना दिखाया, इसलिये बहुत लोग लग गये। जो कल्पित मत हुए हैं वे इसी प्रकार हुए हैं। इसलिए कषायी होकर वस्त्रादि होनेपर मुनिपना कहा है सो पूर्वोक्त युक्तिमें विरूद्ध भासित होता है; इसलिये यह कल्पित वचन हैं, ऐसा जानना ।
फिर कहोगे- दिगम्बरमें भी शास्त्र, पींछी आदि उपकरण मुनिके कहे हैं; उसी प्रकार हमारे चौदह उपकरण कहे हैं ?
समाधान :- जिससे उपकार हो उसका नाम उपकरण है। सो यहाँ शीतादिककी वेदना दूर करने से उपकरण ठहरायें तो सर्व परिग्रह सामग्री उपकरण नाम प्राप्त करे, परन्तु धर्ममें उनका क्या प्रयोजन ? वे तो पापके कारण हैं; धर्ममें तो जो धर्मके उपकारी हों उनका नाम उपकरण है। वहाँ-शास्त्र ज्ञानका कारण, पीछी-दयाका कारण, कमण्डल शौचका कारण है, सो यह तो धर्मके उपकारी हुए, वस्त्रादिक किस प्रकार धर्मके उपकारी होंगे? वे तो शरीर सुखके अर्थ ही धारण किए जाते हैं।
और सुनो, यदि शास्त्र रखकर महंतता दिखायें, पीछीसे बुहारी दें, कमण्डलसे जलादिक पियें व मेल उतारें, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं; परन्तु मुनि ऐसे कार्य नहीं करते। इसलिये धर्मके साधनको परिग्रह संज्ञा नहीं है; भोगके साधनको परिग्रह संज्ञा होती है ऐसा जानना।
फिर कहोगे- कमण्डलसे तो शरीरहीका मल दूर करते हैं; परन्तु मुनि मल दूर करनेकी इच्छासे कमण्डल नहीं रखते हैं। शास्त्र पढना आदि कार्य करते हैं. वहाँ मललिप्त हों तो उनकी अविनय होगी, लोकनिंद्य; होंगे; इसलिए धर्मके अर्थ कमण्डल रखते हैं। इस प्रकार पींछी आदि उपकरण सम्भवित हैं, वस्त्रादिको उपकरण संज्ञा सम्भव नहीं है।
काम , अरति आदि मोहके उदयसे विकार बाह्य प्रगट हों, तथा शीतादि सहे नहीं जायेंगे, इसलिए विकार ढकनेको व शीतादि मिटानेको वस्त्रादि रखते हैं और मानके उदय से अपनी महंतता भी चाहते हैं, इसलिये उन्हें कल्पित युक्ति द्वारा उपकरण ठहराया है।
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