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पाँचवा अधिकार]
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स्त्रीमुक्तिका निषेध
तथा स्त्रीको मोक्ष कहते हैं; सो जिससे सप्तम नरक गमनयोग्य पाप न हो सके, उससे मोक्ष का कारण शुद्धभाव कैसे होगा ? क्योंकि जिसके भाव दृढ़हों, वही उत्कृष्ट पाप व धर्म उत्पन्न कर सकता है। तथा स्त्रीके निःशंक एकान्तमें ध्यान धरना और सर्व परिग्रहादिकका त्याग करना सम्भव नहीं है।
____ यदि कहोगे - एक समयमें पुरुषवेदी व स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदीको सिद्धि होना सिद्धान्तमें कही है, इसलिये स्त्रीको मोक्ष मानते हैं। परन्तु यहाँ वह भाववेदी है या द्रव्यवेदी है ? यदि भाववेदी है तो हम मानते ही हैं; तथा द्रव्यवेदी है तो पुरुष-स्त्रीवेदी तो लोकमें प्रचुर दिखायी देते हैं, और नपुंसक तो कोई विरले दिखते हैं; तो एक समय में मोक्ष जाने वाले इतने नपुंसक कैसे सम्भव हैं ? इसलिये द्रव्यवेदकी अपेक्षा कथन नहीं बनता।
तथा यदि कहोगे - नववें गुणस्थान तक वेद कहे हैं; सो भी भाववेदकी अपेक्षा ही कथन है। द्रव्यवेदकी अपेक्षा हो तो चौदहवें गुणस्थानपर्यन्त वेदका सद्भाव कहना सम्भव हो।
इसलिये स्त्रीको मोक्षका कहना मिथ्या है ।
शूद्रमुक्तिका निषेध
तथा शूद्रोंको मोक्ष कहते हैं; परन्तु चाण्डालादिकको गृहस्थ सन्मानादिकपूर्वक दानादिक कैसे देंगे? लोकविरुद्ध होता है। तथा नीच कुलवालोंके उत्तम परिणाम नहीं हो सकते । तथा नीच गोत्रकर्मका उदय तो पंचम गुणस्थानपर्यन्त ही है; ऊपरके गुणस्थान चढ़े बिना मोक्ष कैसे होगा ? यदि कहोगे - संयम धारण करनेके पश्चात् उसके उच्च गोत्रकाउदय कहते हैं; तो संयम धारण करने- न करनेकी अपेक्षासे नीच-उच्च गोत्रका उदय ठहरा। ऐसा होनेसे असंयमी मनुष्य, तीर्थंकर, क्षत्रियादिकको भी नीच गोत्रका उदय ठहरेगा। यदि उनके कुल अपेक्षा उच्च गोत्रका उदय कहोगे तो चाण्डालिदकके भी कुल अपेक्षा ही नीच गोत्रका उदय कहो। उसका सद्भाव तुम्हारे सूत्रोंमें भी पंचम गुणस्थानपर्यन्त ही कहा है सो कल्पित कहने में पूर्वापर विरोध होगा ही होगा; इसलिये शूद्रोंको मोक्ष कहना मिथ्या है।
इस प्रकार उन्होंने सर्वको मोक्षकी प्राप्ति कही; सो उसका प्रयोजन यह है कि सर्वको भला मानना, मोक्षकी लालच देना और अपने कल्पित मतकी प्रवृत्ति करना। परन्तु विचार करने पर मिथ्या भासित होता है।
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