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[मोक्षमार्गप्रकाशक
हिंसाका पोषण करते हैं; उसी प्रकार यह भी कहीं महर करनेका, कहीं कतल करनेका पोषण करते हैं। तथा जिस प्रकार वे कहीं तपश्चरण करनेका, कहीं विषय सेवनका पोषण करते हैं; उसी प्रकार यह भी पोषण करते हैं। तथा जिस प्रकार वे कहीं मांस-मदिरा, शिकार आदिका निषेध करते हैं, कहीं उत्तम पुरूषों द्वारा उनका अंगीकार करना बतलाते हैं; उसी प्रकार यह भी उनका निषेध व अंगीकार करना बतलाते हैं। ऐसे अनेक प्रकारसे समानता पायी जाती है। यद्यपि नामादिक और और हैं; तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पायी जाती है।
तथा ईश्वर, खुदा आदि मूल श्रद्धानकी तो एकता है और उत्तर श्रद्धानमें बहुत ही विशेष हैं; वहाँ उनसे भी यह विपरीतरूप विषयकषायके पोषक, हिंसादि पापके पोषक, प्रत्यक्षादि प्रमाणसे विरुद्ध निरूपण करते हैं।
इसलिये मुसलमानोंका मत महा विपरीतरूप जानना।
इस प्रकार इस क्षेत्र-कालमें जिन-जिन मतोंकी प्रचुर प्रवृत्ति है उनका मिथ्यापना प्रकट किया।
यहाँ कोई कहे कि- यह मत मिथ्या हैं तो बड़े राजादिक व बड़े विद्यावान् इन मतोंमें कैसे प्रवर्तते हैं ?
समाधान :- जीवोंके मिथ्यावासना अनादिसे है सो इनमें मिथ्यात्वहीका पोषण है। तथा जीवोंको विषयकषायरूप कार्योंकी चाह वर्तती है सो इनमें विषयकषायरूप कार्योंकाही पोषण है। तथा राजादिकोंका व विद्यावानोंका ऐसे धर्ममें विषयकषायरूप प्रयोजन सिद्ध होता है। तथा जीव तो लोकनिंद्यपनाको भी लांघकर, पाप भी जानकर, जिन कार्योंको करना चाहे; उन कार्योंको करते धर्म बतलायें तो ऐसे धर्ममें कौन नहीं लगेगा? इसलिये इन धर्मोंकी विशेष प्रवृत्ति है।
तथा कदाचित तू कहेगा-इन धर्मों में विरागता, दया इत्यादि भी तो कहते हैं ? सो जिस प्रकार झोल दिये बिना खोटा द्रव्य (सिक्का) नहीं चलता; उसी प्रकार सचको मिलाये बिना झूठ नहीं चलता; परन्तु सर्वके हित प्रयोजनमें विषयकषायका ही पोषण किया है। जिस प्रकार गीतामें उपदेश देकर युद्ध करानेका प्रयोजन प्रकट किया, वेदान्तमें शुद्ध निरूपण करके स्वच्छंद होनेका प्रयोजन दिखाया; उसी प्रकार अन्य जानना। तथा यह काल तो निकृष्ट है, सो इसमें तो निकृष्ट धर्महीकी प्रवृत्ति विशेष होती है।
देखो, इसकालमें मुसलमान बहुत प्रधान होगये, हिन्दु घट गये; हिन्दुओंमें और तो बढ गये. जैनी घट गये। सो यह कालका दोष है।
इस प्रकार इस क्षेत्रमें इस काल मिथ्याधर्मकी प्रवृत्ति बहुत पायी जाती है।
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