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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवाँ अधिकार ] [ १०५ तथा जैसे जिस कार्यको छोटा आदमी ही कर सकता हो उस कार्यको राजा स्वयं आकर करे तो कुछ राजाकी महिमा नहीं होती, निन्दा ही होती है । उसी प्रकार जिस कार्यको राजा व व्यंतर देवादिक कर सकें उस कार्यको परमेश्वर स्वयं अवतार धारण करके करता है। ऐसा मानें तो कुछ परमेश्वरकी महिमा नहीं होती, निन्दा ही होती है। तथा महिमा तो कोई और हो उसे दिखलाते हैं; तू तो अद्वैत ब्रह्म मानता है, महिमा किसको दिखाता है? और महिमा दिखलाने का फल तो स्तुति कराना है सो किससे स्तुति कराना चाहता है? तथा तू कहता है सर्व जीव परमेश्वरकी इच्छानुसार प्रवर्तते हैं और स्वयंको स्तुति करानेकी इच्छा है तो सबको अपनी स्तुतिरूप प्रवर्तित करो, किसलिये अन्य कार्य करना पड़े? इसलिये महिमाके अर्थ भी कार्य करना नहीं बनता। फिर वह कहता है परमेश्वर इन कार्योंको करते हुए भी अकर्त्ता है, उसका निर्धार नहीं होता। इससे कहते हैं तू कहेगा कि यह मेरी माता भी है और बाँझ भी है तो तेरा कहा कैसे मानें? जो कार्य करता है उसे अकर्त्ता कैसे मानें ? और तू कहता है निर्धार नहीं होता; सो निर्धार बिना मान लेना ठहरा तो आकाशके फूल, गधेके सींग भी मानो; परन्तु ऐसा असम्भव कहना युक्त नहीं है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेशको होना कहते हैं सो मिथ्या जानना। फिर वे कहते हैं- ब्रह्मा तो सृष्टिको उत्पन्न करते हैं, विष्णु रक्षा करते हैं, महेश संहार करते हैं सो ऐसा कहना भी सम्भव नहीं है; क्योंकि इन कार्योंको करते हुए कोई कुछ करना चाहेगा, कोई कुछ करना चाहेगा, तब परस्पर विरोध होगा। - — - और यदि तू कहेगा कि यह तो एक परमेश्वरका ही स्वरूप है। विरोध किसलिये होगा ? तो आपही उत्पन्न करे, आप ही नष्ट करे ऐसे कार्य में कौन फल है ? यदि सृष्टि अपनेको अनिष्ट है तो किसलिये उत्पन्न की, और इष्ट है तो किसलिये नष्ट की? और पहले इष्ट लगी तब उत्पन्न की, फिर अनिष्ट लगी तब नष्ट करदी ऐसा है तो परमेश्वरका स्वभाव अन्यथा हुआ कि सृष्टिका स्वरूप अन्यथा हुआ । यदि प्रथम पक्ष ग्रहण करेगा तो परमेश्वरका एक स्वभाव नहीं ठहरा । सो एक स्वभाव न रहनेका कारण क्या है ? वह बतला। बिना कारण स्वभावका पलटना किसलिये होगा ? और द्वितीय पक्ष ग्रहण करेगा तो सृष्टि तो परमेश्वरके आधीन थी, उसे ऐसी क्यों होने दिया कि अपनेको अनिष्ट लगे ? - Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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