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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवाँ अधिकार] [१०३ है और जो इन्हींकी मूर्ति उन्हें पूज्य मानें यह कैसा भ्रम है ? तथा उनका कर्त्तव्य भी इन मय भासित होता है। कौतूहलादिक व स्त्री सेवनादिक व युद्धादिक कार्य करते हैं सो उन राजसादि गुणोंसे ही यह क्रियाएँ होती है; इसलिये उनके राजसादिक पाये जाते हैं ऐसा कहो। इन्हें पूज्य कहना, परमेश्वर कहना तो नहीं बनता। जैसे अन्य संसारी हैं वैसे ये भी हैं। तथा कदाचित् तू कहेगा कि - संसारी तो माया के आधीन हैं सो बिना जाने उन कार्योंको करते हैं। माया ब्रह्मादिकके आधीन है, इसलिये वे जानते ही इन कार्योंको करते हैं, सो यह भी भ्रम है। क्योंकि मायाके आधीन होनेसे तो काम-क्रोधादिक ही उत्पन्न होते हैं और क्या होता है ? सो उन ब्रह्मादिकके तो काम-क्रोधादिक की तीव्रता पायी जाती है। कामकी तिव्रता से स्त्रियोंके वशीभूत हुए नृत्य गानादि करने लगे, विह्वल होने लगे, नानाप्रकार कुचेष्टा करने लगे; तथा क्रोधके वशीभूत हुए अनेक युद्धादि करने लगे; मानके वशीभूत हुए अपनी उच्चता प्रगट करनेके अर्थ अनेक उपाय करने लगे; मायाके वशीभूत हुए अनेक छल करने लगे; लोभके वशीभूत हुए परिग्रहका संग्रह करने लगे- इत्यादि; अधिक क्या कहें? इस प्रकार वशीभूत हुए चीर हरणादि निर्लज्जोंकी क्रिया और दधि लूटनादि चोरोंकी क्रिया तथा रुण्डमाला धारणादि बावलोंकी क्रिया * बहरूप धारणादि भतोंकी क्रिया. गायें चराना आदि नीच कुलवालोंकी क्रिया इत्यादि जो निंद्य क्रियायें उनको तो करने लगे; इससे अधिक मायाके वशीभूत होनेपर क्या क्रिया होती सो समझमें नहीं आता ? जैसे – कोई मेघपटल सहित अमावस्याकी रात्रीको अन्धकार रहित माने; उसी प्रकार बाह्य कुचेष्टा सहित तीव्र काम-क्रोधादिकोंके धारी ब्रह्मादिकोंको माया रहित मानना फिर वह कहता है कि - इनको काम-क्रोधादि व्याप्त नहीं होते, यह भी परमेश्वरकी लीला है। इससे कहते हैं - ऐसे कार्य करता है वे इच्छासे करता है या बिना इच्छाके करता है ? यदि इच्छासे करता है तो स्त्रीसेवनकी इच्छाहीका नाम काम है. युद्धकरनेकी इच्छाहीका नाम क्रोध है, इत्यादि इसी प्रकार जानना। और यदि बिना इच्छा करता है तो स्वयं जिसे न चाहे ऐसा कार्य तो परवश होने पर ही होता है, सो परवशपना कैसे सम्भव है ? तथा तू लीला बतलाता है सो परमेश्वर अवतार धारण करके इन कार्योंकी *नानारूपाय मुण्डाय वरुथपृथुदण्डिने। नमः कपालहस्ताय दिग्वासायशिखण्डिने।। (मत्स्य पुराण, अ० २५०, श्लोक २) Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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