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चौथा अधिकार]
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भाव नहीं हो, वही बारह प्रकारका असंयम या अविरति है। कषायभाव होनेपर ऐसे कार्य होते हैं इसलिये मिथ्याचारित्रका नाम असंयम या अविरति जानना। तथा इसीका नाम अव्रत जानना - क्योंकि हिंसा, अनृत, अस्तेय, अब्रह्म, परिग्रह - इन पापकार्यों में प्रवृत्तिका नाम अव्रत है। इनका मूलकारण प्रमत्तयोग कहा है। प्रमत्तयोग है वह कषायमय है इसलिये मिथ्याचारित्रका नाम अव्रत भी कहा जाता है।
ऐसे मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहा।
इसप्रकार इस संसारी जीवके मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप परिणमन अनादिसे पाया जाता है। ऐसा परिणमन एकेन्द्रियादि असंज्ञी पर्यन्त तो सर्व जीवोंके पाया जाता है। तथा संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें सम्यग्दृष्टिको छोड़कर अन्य सर्व जीवोंके ऐसा ही परिणमन पाया जाता है। परिणमनमें जैसा जहाँ संभव हो वैसा वहाँ जानना। जैसे - एकेन्द्रियादिकोंको इन्द्रियादिककी हीनता-अधिकता पाई जाती है। और धनपुत्रादिकका सम्बन्ध मनुष्यादिकको ही पाया जाता है। इन्हींके निमित्तसे मिथ्यादर्शनादिकका वर्णन किया है। उसमें जैसा विशेष संभव हो वैसा जानना।
तथा एकेन्द्रियादिक जीव इन्द्रिय, शरीरादिकका नाम नहीं जानते; परन्तु उस नामके अर्थरूप जो भाव है उसमें पूर्वोक्त प्रकारसे परिणमन पाया जाता है। जैसे - मैं स्पर्शन से स्पर्श करता हूँ। शरीर मेरा है ऐसा नाम नहीं जानता, तथापि उसके अर्थरूप जो भाव है उसरूप परिणमित होता है। तथा मनुष्यादिक कितने ही नाम भी जानते हैं और उनके भावरूप परिणमन करते हैं – इत्यादि विशेष सम्भव हैं उन्हें जान लेना।
मोहकी महिमा
___ ऐसे ये मिथ्यादर्शनादिक भाव जीवके अनादिसे पाये जाते हैं, नवीन ग्रहण नहीं किये हैं। देखो इसकी महिमा, कि जो पर्याय धारण करता है वहाँ बिना ही सिखाये मोहके
स्वयमेव ऐसा ही परिणमन होता है। तथा मनष्यादिकको सत्यविचार होनेके कारण मिलने पर भी सम्यक्परिणमन नहीं होता; और श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बने, वे बारम्बार समझायें, परन्तु ये कुछ विचार नहीं करता। तथा स्वयंको भी प्रत्यक्ष भासित हो वह तो नहीं मानता और अन्यथा ही मानता है। किस प्रकार ? सो कहते हैं :
मरण होने पर शरीर-आत्मा प्रत्यक्ष भिन्न होते हैं। एक शरीर को छोड़कर आत्मा अन्य शरीर धारण करता है; वहाँ व्यन्तरादिक अपने पूर्वभवका सन्बन्ध प्रगट करते देखे जाते हैं; परन्तु इसको शरीर से भिन्नबुद्धि नहीं हो सकती। स्त्री-पुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष देखे जाते हैं; उनका प्रयोजन सिद्ध न हो तो तभी विपरीत होते दिखायी देते हैं;
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