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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चौथा अधिकार] [८१ हिलते हैं तब वह कार्य बनता है; अथवा अपनी इच्छा के बिना शरीर हिलता है तब अपने प्रदेश भी हिलते हैं; यह सबको एक मानकर ऐसा मानता है कि मैं गमनादि कार्य करता हूँ, मैं वस्तु का ग्रहण करता हूँ अथवा मैने किया है - इत्यादिरूप मानता है। तथा जीव के कषायभाव हों तब शरीर की चेष्टा उसके अनुसार हो जाती है। जैसे - क्रोधादिक होने पर लाल नेत्रादि हो जाते हैं, हास्यादि होने पर मुखादि प्रफुल्लित हो जाते हैं, पुरुषवेदादि होने पर लिंगकाठिन्यादि हो जाते हैं; यह सब एक मान कर ऐसा मानता है कि यह कार्य सब मैं करता हूँ। तथा शरीर में शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, रोग इत्यादि अवस्थाएँ होती हैं, उनके निमित्त से मोहभाव द्वारा स्वयं सुख-दुःख मानता है। इन सबको एक जानकर शीतादिक तथा सुख-दुःख अपने को ही हुए मानता है। तथा शरीर के परमाणुओंका मिलना-बिछुड़ना आदि होने से अथवा उनकी अवस्था पलटने से या शरीर स्कन्ध के खण्ड आदि होने से स्थूल-कृशादिक , बाल-वृद्धादिक अथवा अंगहीनादिक होते हैं और उसके अनुसार अपने प्रदेशों का संकोच-विस्तार होता है; यह सबको एक मान कर मैं स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ, मेरे इन अंगों का भंग हुआ है – इत्यादिरूप मानता है। तथा शरीर की अपेक्षा गति कुलादिक होते हैं उन्हें अपना मानकर मैं मनुष्य हूँ, मैं तिर्यन्च हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ - इत्यादिरूप मानता है। तथा शरीर का संयोग होने और छूटने की अपेक्षा जन्म-मरण होता है; उसे अपना जन्म-मरण मान कर मैं उत्पन्न हुआ, मैं मरूँगा - ऐसा मानता है। ___ तथा शरीरहीकी अपेक्षा अन्य वस्तुओंसे नाता मानता है। जिनके द्वारा शरीरकी उत्पत्ति हुई उन्हें अपने माता-पिता मानता हैं; जो शरीरको रमण कराये उसे अपनी रमणी मानता है; जो शरीरसे उत्पन्न हुआ उसे अपना पुत्र मानता है; जो शरीरको उपकारी हो उसे मित्र मानता है; जो शरीर का बुरा करे उसे शत्रु मानता है - इत्यादिकरूप मान्यता होती है। अधिक क्या कहें ? जिस-तिस प्रकारसे अपनेको और शरीर को एकही मानता है। इन्द्रियादिकके नाम तो यहाँ कहे हैं; परन्तु इसे तो कुछ गम्य नहीं है। अचेत हुआ पर्याय में अहंबुद्धि धारण करता है। उसका कारण क्या है ? वह बतलाते हैं : इस आत्मा को अनादिसे इन्द्रियज्ञान है; उससे स्वयं अमूर्त्तिक है वह तो भासित नहीं होता, परन्तु शरीर मूर्तिक है वही भासित होता है। और आत्मा किसी को आपरूप जानकर अहंबुद्धि धारण करे ही करे, सो जब स्वयं पृथक भासित नहीं हुआ तब उनके समुदायरूप पर्यायमें ही अहंबुद्धि धारण करता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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