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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है परपदार्थों का उद्योतन ( प्रकाशन) करता है-उसी प्रकार अपनी भी उद्योतन (प्रकाशन) करता है - अपने प्रकाशन में किसी प्रकार पर की अपेक्षा नहीं रखता-उसी प्रकार ज्ञान भी अपने को तथा परपदार्थ समूह को स्वभाव से ही जानता है-अपने को अथवा आत्मा को जानने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता । । १२३ ।। (श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य, जीव अधिकार, गाथा - २४) * इन्द्रियों के व्यापार को रोककर क्षण-भर अन्तर्मुख होकर देखने वाले योगी को जो रूप दिखलाई पड़ता है उसे आत्मा का शुद्ध संवेदनात्मक (ज्ञानात्मक ) रूप जानना चाहिए ।। १२४ ।। ( श्री योगसार प्राभृत, श्री अमितगति आचार्य, जीव अधिकार गाथा—३३, व्याख्या भी पढ़ना ) * अपने आत्मा के विचार में निपुण राग-रहित जीवों के द्वारा निर्दोष श्रुतज्ञान से भी आत्मा केवलज्ञान के समान जाना जाता है । । १२५ ।। (श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य, जीव अधिकार, गाथा ३४ ) इन्द्रियों को अपने विषयों से रोककर आत्मध्यान का अभ्यास करने वाले निर्विकल्प - चित्त ध्याता को आत्मा का वह रूप वस्तुतः स्पष्ट प्रतिभासित होता है-साक्षात् अनुभव में आता है ।। १२६ ।। (श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य, जीव अधिकार, गाथा ४५ व्याख्या भी पढ़ना ) * श्री देवसेन आचार्य ने तो आराधनासार में इसी विषय को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “ मन मन्दिर के उज्जड़ होने पर उसमें किसी भी संकल्प - विकल्प का वास न रहने पर - और समस्त इन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाने पर आत्मा का स्वभाव अवश्य आविर्भूत होता है और उस स्वभाव के आविर्भूत होने पर यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता ५९ 'पर ज्ञेय को ज्ञेय मानना ज्ञेय की भूल हैं* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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