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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* यह मोहकर्म जड़ पुद्गल द्रव्य हैं; उसका उदय कलुष ( मलिन ) भावरूप है, वह भाव भी मोहकर्म का भाव होने से, पुद्गल का ही विकार है। यह भावक का भाव जब चैतन्य के उपयोग के अनुभव में आता है तब उपयोग भी विकार रागादिरूप मलिन दिखाई देता है। जब उसका भेदज्ञान हो कि ' चैतन्य की शक्ति की व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोग मात्र है और यह कलुषता रागद्वेषमोहरूप हैं वह जड़ पुद्गल द्रव्य की है' तब भावक भाव जो द्रव्यकर्मरूप मोह के भाव उससे अवश्य भेदभाव होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्य के अनुभवरूप स्थित होता है ।। ११२ ।।
( श्री समयसार जी गाथा - ३६ का भावार्थ ) * जीव अध्यवसान से तिर्यंच, नारक, देव और मनुष्य इन सर्व पर्यायों तथा अनेक प्रकार के पुण्य और पाप - इन सबरूप अपने को करता है। और उसी प्रकार जीव अध्यवसान से धर्म-अधर्म, जीव-अजीव और लोक- अलोक इन सबरूप अपने को करता है ।। ११३ ।।
(श्री समयसार जी गाथा २६८-२६९ का गाथार्थ श्री कुंदकुंदाचार्य)
* जैसे यह आत्मा पूर्वोक्त प्रकार क्रिया जिसका गर्भ है ऐसे हिंसा के अध्यवसान से अपने को हिंसक करता है ( अहिंसा के अध्यवसान से अपने को अहिंसक करता है) और अन्य अध्यवसानों से अपने को अन्य करता है, इसी प्रकार उदय में आते हुए नारक के अध्यवसान से अपने को नारकी करता है, उदय में आते हुये तिर्यंच के अध्यवसान से अपने को तिर्यंच करता है, उदय में आते हुये मनुष्य के अध्यवसान से अपने को मनुष्य करता हैं, उदय में आते हुये देव के अध्यवसान से अपने को देव करता है, उदय में आते हुये सुख आदि पुण्य के अध्यवसान से अपने को पुण्यरूप करता है, और उदय में आते हुये दुःखादि पाप के
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* इन्द्रियज्ञान मूर्तिक है *
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