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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है परमार्थ के प्रतिपादकत्व से अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है।।६१।। (श्री समयसार जी, गाथा ९-१० की टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य) * जो शास्त्रज्ञान से अभेदरूप ज्ञायक मात्र शुद्धात्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है, यह तो परमार्थ (निश्चय कथन) है। और जो सर्वशास्त्र ज्ञान को जानता है उसने भी ज्ञान को जानने से आत्मा को ही जाना है; क्योंकि जो ज्ञान है वह आत्मा ही है; इसलिये ज्ञान-ज्ञानी के भेद को कहने वाला जो व्यवहार उसने भी परमार्थ ही कहा है, अन्य कुछ नहीं कहा। और परमार्थ का विषय तो कथंचित् वचनगोचर भी नहीं है, इसलिए व्यवहार नय आत्मा को प्रगट रूप से कहता है, ऐसा जानना चाहिए।।६२।। (श्री समयसार जी, गाथा ९–१० का भावार्थ, __पंडित श्री जयचन्द जी छावड़ा) * परन्तु अब वहाँ, सामान्यज्ञान के आविर्भाव ( प्रगटपना) और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान के तिरोभाव ( आच्छादन) से जब ज्ञानमात्र का अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त हैं उन्हें वह स्वाद में नहीं आता।।६३।। (श्री समयसार जी, गाथा १५ की टीका में से, श्री अमृतचंद्राचार्य) * द्रष्टान्तः- जैसे अनेक प्रकार के शाकादि भोजनों के सम्बन्ध से उत्पन्न सामान्य लवण के-तिरोभाव और विशेष लवण के आविर्भाव से अनुभव में आने वाला जो (सामान्य के तिरोभाव रूप और शाकादि के स्वाद भेद से भेदरूप-विशेषरूप) लवण है उसका स्वाद अज्ञानी शाक लोलुप मनुष्यों को आता है किन्तु अन्य की सम्बन्ध रहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आने वाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है उसका स्वाद नहीं आता; और परमार्थ से २६ *इन्द्रियज्ञान जिसको जाने उसको अपना मानता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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