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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जो ज्ञान हो वह स्वसत्तावलंबनशील होता है उसका नाम ज्ञान है।।१२।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक , परमार्थ वचनिका , पृष्ठ ३५५ )
* भावार्थ :- भगवान समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिये ही वे 'केवली' नहीं कहलाते, किन्तु केवल अर्थात् शुद्ध आत्मा को जानने-अनुभव करने से 'केवली' कहलाते हैं। केवल (शुद्ध) आत्मा को जानने-अनुभव करने वाला श्रुतज्ञानी भी 'श्रुतकेवली' कहलाता है। इसलिये अधिक जानने की इच्छा का क्षोभ छोड़कर स्वरूप में ही निश्चल रहना योग्य है। यही केवल ज्ञान प्राप्ति का उपाय है।।१३।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा-३३ का भावार्थ) * (सूत्र कि ज्ञप्ति कहने पर निश्चय से ज्ञप्ति कहीं पौद्गलिक सूत्र की नहीं, किन्तु आत्मा की है। सूत्र ज्ञप्ति का स्वरूप भूत नहीं, किन्तु विशेष वस्तु अर्थात् उपाधि है; क्योंकि सूत्र न हो तो वहाँ भी ज्ञप्ति तो होती ही है। इसलिये यदि सूत्र को न गिना जाय तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रहती है।) और वह (ज्ञप्ति) केवली और श्रुतकेवली के आत्मानुभवन में समान ही है। इसलिये ज्ञान में श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है।।१४।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा-३४ टीका में से) * भावार्थ :- ज्ञेय पदार्थ रूप से परिणमन करना अर्थात यह हरा है, यह पीला है, इत्यादी विकल्प रूप से ज्ञेयरूप पदार्थों में परिणमन करना वह कर्म का भोगना है, ज्ञान का नहीं। निर्विकार सहज आनन्द में लीन रहकर सहज रूप से जानते रहना वह ही ज्ञान का स्वरूप है; ज्ञेय पदार्थों में रुकना-उनके सन्मुख वृत्ति होना, वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है।।१५।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा-४२ भावार्थ) * भावार्थ :- कर्म के तीन भेद किये गये हैं – प्राप्य , विकार्य और
*इन्द्रियज्ञान को ज्ञान मानना वह ज्ञान की भूल है।
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