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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
प्रवर्तता है, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषय का स्वाद है, सो विषयों में तो स्वाद है नहीं ! स्वयं ही इच्छा की थी, उसे स्वयं ही जानकर स्वयं ही आनन्द मान लिया; परन्तु मैं अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ - ऐसा निःकेवल ज्ञान का तो अनुभवन है नहीं। तथा मैंने नृत्य देखा, राग सुना, फूल सूंघे ( पदार्थ का स्वाद लिया, पदार्थ का स्पर्श किया) शास्त्र जाना, मुझे यह जानना; इस प्रकार ज्ञेय मिश्रित ज्ञान का अनुभवन है उससे विषयों की ही प्रधानता भासित होती है। इस प्रकार इस जीव को मोह के निमित्त से विषयों की इच्छा पाई जाती है।।७।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तिसरा अधिकार पृष्ठ ४६ ) * इस प्रकार ज्ञानावरण- ग-दर्शनावरण के क्षयोपशम से हुआ इन्द्रियजनित ज्ञान है वह मिथ्यादर्शनादि के निमित्त से इच्छासहित होकर दुःख का कारण हुआ है ।।८।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तिसरा अधिकार पृष्ठ ४७ ) * अपना दर्शन-ज्ञान स्वभाव है, उसकी प्रवृत्ति को निमित्तमात्र शरीर के अंगरूप स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रियाँ हैं; यह उन्हे एक मानकर ऐसा मानता है कि हाथ आदि से मैंने स्पर्श किया, जीभ से स्वाद लिया, नासिका से सूंघा, नेत्र से देखा, कानों से सुना । मनोवर्गणारूप आठ पंखुड़ियों के फूले कमल के आकार का हृदय स्थान में द्रव्यमन है, वह दृष्टिगम्य नहीं ऐसा है, सो शरीर का अंग है; उसके निमित्त होने पर स्मरणादिरूप ज्ञान की प्रवृत्ति होती है । यह द्रव्यमन को और ज्ञान को एक मानकर ऐसा मानता है कि मैंने मन से जाना ।।९।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, चौथा अधिकार पृष्ठ ८० )
* श्री प्रवचनसार में ऐसा लिखा है कि आगम ज्ञान ऐसा हुआ जिसके द्वारा सर्वपदार्थों को हस्तामलकवत् जानता है । यह भी जानता है कि इनका
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* इन्द्रियज्ञान में स्व - पर का विवेक नहीं होता है*
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