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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
(जानता है)! इसलिए - इन्द्रियज्ञान का झुकाव हमेशा ज्ञेय सन्मुख ही रहता है, परज्ञेय सन्मुख ही इन्द्रियज्ञान का उपयोग जाता है। अभी , जब तक परज्ञेय के सन्मुख रहता है तब तक स्वज्ञेय से विमुख रहता है। इस प्रकार आत्मा से भावेन्द्रिय हमेशा विमुख ही रहती है। इसलिए इन भावेन्द्रियों को जीतने से ही एक नया अतीन्द्रिय ज्ञान प्रकट होता है कि जिसमें आत्मा का अनुभव होता है। फिर जब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होगा तब तक इन्द्रियज्ञान संयोगपणे रहेगा- परन्तु इस इन्द्रियज्ञान को साधक हेयरूप जानता है, अब उपादेयपणे नहीं जानता। इन्द्रियज्ञान आश्रय करने की अपेक्षा तो हेय है परन्तु प्रकट करने की अपेक्षा भी हेय है, जबकि अतीन्द्रिय ज्ञान आश्रय करने की अपेक्षा तो हेय है परन्तु प्रकट करने की अपेक्षा उपादेय है!
इस प्रकार के विचार आये और इस पुस्तक का जन्म हुआ। इस पुस्तक में से मुमुक्षु समाज को इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान के बीच में भेदज्ञान होने का उत्कृष्ट उपाय मिलेगा और आत्मा का अनुभव होगा।
यहाँ एक प्रश्न यह हो सकता है कि पाँच इन्द्रियाँ तो अकेले मूर्त पदार्थ को जानती हैं इसलिए ये तो हेय हैं परन्तु भावमन कि जो रूपी-अरूपी दोनों को जानता है - यह हेय कैसे हो सकता है ?
भावमन में भेदज्ञान के समय शुद्धात्मा का जो स्वरूप है वह उपादेय तत्व है उसका निर्णय करने की ताकत तो है, इसीलिए तो संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्यक्त्व को पाते हैं यह बात सत्य है क्योंकि मन वाला प्राणी हिताहित का विचार करके जो उपादेय तत्त्व है उसे अनुमान में ले सकता है, फिर भी मन द्वारा आत्मा अनुभव में नहीं आता... अतः मन पावे विश्राम... अनुभव याको नाम! इसलिए भावमन हेय है। क्योंकि भावमन में विकल्प उत्पन्न होता है- नयों के विकल्प कि जो विकल्प कि जो विकल्प आकुलतामयी
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