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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * करोड़ो श्लोक धारणा में रखे, परन्तु अन्दर में गहरे-गहरे पर तरफ के झुकाव में कहीं न कहीं सुखबुद्धि पड़ी है। पर तरफ का ज्ञान है ये परसत्तावलंबी ज्ञान है उसमें प्रसन्न होता है कि बहुत से ज्यादा लोगों को समझा दूं और लोग खुश हो जावें-ऐसी सुख की कल्पना रह जाती है। धारणा में यथार्थ जानपना होने पर भी अन्दर में अयथार्थ प्रयोजन है इसलिए सम्यग्दर्शन नहीं होता है।।५०७।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १३७, बोल ४९१) * दुनिया की बातों का जिसको रस है उसको यह बात बैठनी कठिन लगती है और जिसको इस बात का रस लग जाता है उसको अन्य में रस नहीं लगता है। ऐसे ही जिसको इन्द्रियज्ञान का रस चढ़ा है उसको अतीन्द्रिय ज्ञान प्रकट नहीं होता है। जैसे राग वह व्यभिचार है वैसे ही इन्द्रियज्ञान का रस वो भी व्यभिचार है।।५०८ ।। __ (श्री परमागमसार, पृष्ठ १४०, बोल ५०३) * उपयोग नाम का लक्षण कहा; किसका लक्षण कहा ? कि जीव का, आत्मा का। अभी आत्मा का जो लक्षण है वह निमित्त के अवलम्बन से होवे वह लक्षण ही नहीं है। भाई! यह तो धीरज से समझने की बात है। आत्मा का लक्षण उपयोग है, लक्ष्य आत्मद्रव्य है। अब इस उपयोग नाम के लक्षण द्वारा जो लक्षण लक्ष को जाने, ऐसे लक्षण में परज्ञेय को जानने का जो अवलम्बन होता है वह उपयोग जीव का नहीं है।।५०९ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १४४, बोल ५१५ ) * कितने ही लोग अभी शुभराग को मोक्षमार्ग मानते हैं। उनसे कहते हैं कि प्रभू! तू कहाँ गया ? क्या करता है ? यहाँ तो परलक्ष वाला ज्ञान वह जीव का नहीं है, तो परलक्ष वाला राग है वह जीव को लाभ करे यह बात कहाँ रही ? अरे प्रभु ये क्या करता है ? सत्य सुनने को मिला नहीं है। २४२ *ज्ञानी ऐसा मानता है कि मैं नाक से नहीं सूघंता हूँ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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