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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
की उपलब्धि कराने का उपदेश दिया है। क्योंकि वास्तव में इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञानमयी आत्मा इन दोनों के बीच में ही भेदज्ञान है, भेदज्ञान की शुरूआत ही यहाँ से होती है! ____ मैं पर को जानता हूँ इसे भ्रांति कहा, इसे अध्यवसान भी कहा (२७० गाथा श्री समयसार) क्योंकि वास्तव में आत्मा पर को नहीं जानता, और जो पर को जानता है वह आत्मा नहीं है, वह तो इन्द्रियज्ञान है। और मैं पर को जानता हूँ - ऐसा मानें तो उसे इन्द्रियज्ञान में “मैं पना” हो गया, इसलिए यह मिथ्यात्व है। इसीलिए इन्द्रियज्ञान को जीतना बहुत जरूरी है।
इन्द्रियज्ञान को कैसे जीतें ?
मैं पर को जानता नहीं हूँ... मुझे तो - जाननहार ही जानने में आता है। तब ही इन्द्रियज्ञान का व्यापार क्षणभर के लिए रूक जाता है और एक नवीन जात्यांतरज्ञान, अतीन्द्रिय ज्ञान, आत्मज्ञान, अखण्ड ज्ञान, विकल्परहितज्ञान, नयातिक्रान्त रूप - सम्यज्ञान प्रकट होता है - कि जिसमें आत्मा का स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष दर्शन होता है। अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आता है। इसलिए आत्मार्थी को आत्मा को अनुभवने के लिए, आत्मानुभव में एकमात्र बाधक कारण – ऐसे इन्द्रियज्ञान का निषेध करना बहुत जरूरी है। पर को जानने के निषेध में तो इन्द्रियज्ञान का निषेध होता है, ज्ञान का नहीं! ज्ञान को वास्तव में इसमें प्रकट होता है। क्योंकि अज्ञान का निषेध किए बिना ज्ञान प्रकट नहीं हो सकता।
श्री समयसार जी की गाथा ३१ में केवली भगवान की प्रथम स्तुति - निश्चय स्तुति, मोह को जीतने से होती है – ऐसा कहा है! और
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