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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
कुछ आ जाये-धारणा से याद रहे-वहाँ उसको अभिमान हो जाता है। कारण कि अज्ञानी को वस्तु के अगाध स्वरूप का ख्याल ( अनुभव ) नहीं हैं; इसलिए वह बुद्धि के क्षयोपशम आदि में संतोष मानकर अटक ( रुक) जाता है। ___ अज्ञानी इन्द्रियज्ञान में मुझे कुछ आता है, मैं भी कुछ जानता हूँऐसा मानकर रुक जाता है। और ज्ञानी को अपना रस होने से, इन्द्रियज्ञान में नहीं अटकता है।।४३८ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १-२ के
ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * यहाँ कहते हैं कि ये जो इन्द्रिय से शास्त्रज्ञान हुआ; इस ( शास्त्र की) जानकारी के भाव से आत्मा जानने में आवे-ऐसा नहीं है। इसको (इन्द्रियज्ञान को) छोड़कर अन्दर में आवे तब आत्मा जानने में आवे ऐसा है।।४३९ ।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १-२ के
ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से )
* इन्द्रिय प्रत्यक्ष से जो ज्ञान हुआ- यह मैंने भगवान को प्रत्यक्ष देखा', यह मैंने समोशरण देखा, मैंने भगवान की वाणी प्रत्यक्ष सुनीऐसे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान का आत्मा विषय ही नहीं है। इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होवे ऐसा जो ज्ञान उसका भी यह आत्मा विषय नहीं है।।४४०।।। (श्री प्रवचनसार, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल १-२ के
ऊपर पू. गुरुदेव श्री के प्रवचन में से) * कल कहा था कि भावेन्द्रिय, जड़इन्द्रिय और भगवान की वाणी, स्त्री-कुटुम्ब , देश ये सब इन्द्रियाँ-अर्थात् कि द्रव्येन्द्रिय , भावेन्द्रिय और
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* इन्द्रियज्ञान से भेदज्ञान करने की ताकत नहीं हैं।
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