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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* यहाँ कहते हैं कि 'अन्य कोई नहीं है' वैसे ही ज्ञायक का समझनाइसका क्या मतलब है ? कि जाननहार भगवान आत्मा स्व को जानते ही, जिस पर्याय में स्व को जाना उसी पर्याय में पर को भी जाना। तो यह पर को जानती हुई जो जानने की पर्याय हुई है वह अपने से ही हुई है। मतलब कि वास्तव में तो उसने अपनी पर्याय को जाना है। कारण कि उस पर्याय में कही ज्ञेय आया नहीं है। जैसे दीपक घट पट को प्रकाशता है तो कहीं दीपक के प्रकाश में घट पट आ नहीं गये हैं। दीपक के प्रकाश में वो घुसकर नहीं बैठ गये हैं। उसी प्रकार भगवान आत्मा चैतन्य दीपक-चंद्रप्रभु हैं- ऐसा जिसको राग से भिन्न होकर अन्दर में ज्ञान हुआ है अर्थात् आत्मा सर्वज्ञ स्वभावी है-ऐसा जहाँ भान हुआ, वहाँ अल्पज्ञ पर्याय में सर्वज्ञ स्वभाव का भान हुआ तो यह जो अल्पज्ञ पर्याय हुई वह सर्वज्ञ स्वभाव की है मतलब कि उसको जाननेवाली वह पर्याय ज्ञायक की पर्याय है। ओर वह पर्याय पर को जानती है तो भी वह ज्ञायक की पर्याय है। परन्तु वो पर की पर्याय है या पर के कारण हुई है-ऐसा नहीं है। अहा! एक बार मध्यस्थ होकर सुने तो खबर पड़े। परन्तु आग्रह रखकर बैठा हो कि इससे ऐसा होता है-उससे वैसा होता है तो खबर नहीं पड़ेगी। अज्ञानी आग्रह रखकर बैठा हैं कि इससे ऐसा होता है- उससे वैसा होता है तो खबर नहीं पड़ेगी। अज्ञानी आग्रह रखकर बैठा है कि व्रत करने से संवर होता है
और तपस्या करने से निर्जता होती है लेकिन व्रत किसको कहना और निश्चयव्रत किसको कहना उसकी उसे खबर नहीं पड़ती।।३४२।।
(श्री ज्ञायक भाव पुस्तक में से पृष्ठ ६१-६२)
* सभी अपने-अपने भावरूप से परिणमते हुए पदार्थ एक-दूसरे का कुछ नहीं कर सकते हैं। ज्ञायक पर द्रव्य को जानता है ऐसा कहने में आता है वह मात्र उपचार से है। निश्चय से तो ज्ञायक भी स्वयं, ज्ञान भी स्वयं, ओर ज्ञेय भी स्वयं ही है। सूक्ष्म बात है भाई! पर को जानते समय भी वह अपनी ज्ञान की पर्याय को ही जानता है। अहाहा...!
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* इन्द्रियज्ञान चंचल है
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