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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
भगवान! तू इतना और ऐसा ही है। अन्यथा मानेगा तो तेरे स्वभाव का घात होगा।
सर्वज्ञ परमेश्वर कहते हैं-लोकालोक जानने में आवे ऐसी तेरी पर्याय नहीं है, तेरी ज्ञानपर्याय को तू जाने-देखे-ऐसा तेरा स्वरूप है। लोकालोक को जानते हैं ऐसा कहना यह असद्भूत व्यवहार है, झूठा व्यवहार है।
तब सच्चा व्यवहार क्या है ? वह यह है; स्वयं जाणन-जाननहार जानने के भाववाला तत्व होने से लोकालोक के जितने ज्ञेय है उनको और अपने को जानने की कियारूप अपने में (अपने अस्तित्व में) अपने कारण से परिणमता है। वास्तव में तो यह जो ज्ञान की पर्याय है वह ज्ञेय है। ज्ञान की पर्याय का पर ( पदार्थ) ज्ञेय है-ऐसा कहना वह व्यवहार है, ऐसी बात है।
ज्ञेयों के आकार अर्थात् ज्ञेयों के विशेष-उनकी ज्ञान में झलक आती है, अर्थात् उस सम्बन्धी अपना ज्ञान अपने में से परिणमता है। वह ज्ञान ज्ञेयाकार दिखता है-ऐसा कहा तो भी वह ज्ञेयाकार हुआ नहीं है। यह तो ज्ञानाकार-ज्ञान की ही तरंगे हैं। अहाहा...! जाणन... जाणन... जाणन अपना स्वभाव है। उसमें परवस्तु का-परज्ञेय का प्रवेश नहीं है। फिर भी उसका जानना इधर ( स्वयं में) होता है, वह सचमुच उसका (परज्ञेय का) जानना नहीं है। जानने की दशा जो अपनी है उसका जानना है। यह न्याय से तो बात है; उसको समझना तो होगा न! और दूसरा कोई थोड़ा समझा देंगे ?
देखो, दर्पण के दृष्टान्त से यह बात समझें:जिस प्रकार दर्पण के सामने कोयला, अग्नि आदि रखे हुए हैं, वह
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* इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है, ज्ञेय है
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