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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
प्रश्न : वाणी सुनी इसलिये ज्ञान हुआ , पहले तो वह नहीं था ?
उत्तर : भाई! उस काल में उस ( ज्ञान की) पर्याय का उस प्रकार के ज्ञेय को जानने की योग्यता थी। इसलिए ज्ञान अपने से हुआ है। वाणी के कारण से नहीं। प्रवचनसार में आता है कि वीतराग की वाणी पुद्गल है, उससे ज्ञान नहीं होता। ज्ञानसूर्य प्रभु स्वयं जाननहार है। वह अपने को जानते ही पर को स्वतः जानता है। पर से तो वह जानता नहीं है लेकिन पर है इसलिये पर को जानता है, ऐसा भी नहीं है।।३११।।
(श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२७) * जिसने पर से अधिकपने-भिन्नपने पूर्ण आत्मा को जाना, संचेता
और अनुभव किया उसने इन्द्रियों के विषयों को जीता। जड़ इन्द्रियाँ, भावेन्द्रियाँ और उसके विषयभूत पदार्थ वे तीनों ही ज्ञान का परज्ञेय हैं। उन तीनों को जिसने जीता अर्थात् उन सबसे जो भिन्न हुआ वह जिन हुआ, जैन हुआ। स्व-पर की एकता बुद्धि से वह अजैन था! अब, पर से भिन्न होकर, निर्मल पर्याय को प्रगट करके वह जितेन्द्रिय जिन होता है।।३१२।।
(श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२८ ) * द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और इन्द्रिय के विषय उन तीनों को इन्द्रिय कहते हैं। उन सबका लक्ष छोड़कर, अपने ज्ञानस्वभाव द्वारा, पर से अधिक भिन्न ऐसा निज पूर्ण शुद्ध चैतन्य का जो अनुभव करता है उसको निश्चयनय के जानने वाले गणधरदेव जितेन्द्रिय जिन और धर्मी कहते हैं।।३१३।।
(श्री गुजराती प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, पृष्ठ १२९)
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* इन्द्रियज्ञान ज्ञेय बदलता रहता है*
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