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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
सूत्रों रूपी ( मैं जाननहार हूँ, मैं करनार नहीं हूँ; जाननहार ही जानने में आता है, वास्तव में पर जानने में नही आता है) गागर में भर दिया है। इस प्रकार आप श्री ने विस्तृत - जैनदर्शन के हार्द को संक्षिप्त करके ध्यान केन्द्रित कराया है; क्योंकि ध्यान से ही साध्य की सिद्धि होती है।
श्री जिनशासन के स्तम्भ श्रीमद् कुंदकुंदाचार्य देव द्वारा विरचित अद्भुत-अजोड़-अद्वितीय परमागम श्री समयसार जी की छठवीं गाथा को आपश्री ने स्वानुभव से प्रमाण किया है; और अपनी स्वानुभवमयी सातिशय वाणी के द्वारा परम करुणा करके भव्य जीवों को शुद्धात्मा का स्वरूप और उसके अनुभव की विधि स्पष्ट रीति से निशंकपने – दर्शाई है। शुद्धात्मा का स्वरूप दर्शाते हुए आपश्री ने फरमाया कि “आत्मा प्रमत्त-अप्रमत्त से सर्वथा रहित है, इसलिए परिणाम मात्र का कर्त्ता नहीं है, अकर्ता है"- यह द्रव्य का निश्चय है, दृष्टि का विषय है। और अनुभव की विधि दर्शाते हुए आपश्री ने फरमाया कि “ज्ञान – पर को नहीं जानता है” – इसमें ज्ञान पर से व्यावृत हो जाता है। और " जाननहार ही जानने में आता है” उसमें आत्मा के सन्मुख होते ही एक नया जात्यांतर – अतीन्द्रिय ज्ञान प्रकट होता है कि जिसमें आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है - यह पर्याय का निश्चय है।
निर्विकल्प ध्यान में तो 'पर जानने में नहीं आता, जाननहार ही जानने में आता है' – इस सत्य को तो सभी स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन सविकल्प दशा में भी मतलब कि ज्ञेयाकार अवस्था में भी ज्ञायक ही जानने में आता है – कारण कि ज्ञायक के ऊपर ही लक्ष है। पर जानने में नहीं आता है, क्योंकि पर के ऊपर लक्ष नहीं है। एक सिद्धान्त ही ऐसा है कि जिसके ऊपर लक्ष होता है वही जानने में आता है। और जिसके ऊपर
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