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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ज्योति स्वरूप केवल ज्ञान का कारणरूप तथा अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न परम आनन्द एक लक्षण को रखने वाले सुख के वेदन के आकार में परिणमन करने वाले और रागद्वेषादि विकल्पों की उपाधि से रहित स्वसंवेदन ज्ञान में भावना करनी चाहिये, यह अभिप्राय है।।२६१।।
(श्री प्रवचनसार जी श्री जयसेनाचार्य टीका, गाथा ५७,)
* विषयानुभव और स्वात्मानुभव में उपादेय कौन है ?
विषयानुभवं बाह्यं स्वात्मानुभवमान्तरम्। विज्ञाय प्रथमं हित्वा स्थेयमन्यसर्वतः ।।७५।।
इन्द्रिय विषयों का जो अनुभव है वह बाह्य ( सुख) है और स्वात्मा का जो अनुभव है वह अंतरंग (सुख) है, यह बात जानकर बाह्य विषय-अनुभव को छोड़कर स्वात्मानुभवरूप अंतरंग में पूर्णपणे स्थित होना चाहिए।।२६२।।। (श्री योगसार, श्री अमितगति आचार्य, चूलिका
अधिकार गाथा ७५) * आगे निश्चयकर आत्मज्ञान से बहिर्मुख बाह्य पदार्थों का ज्ञान है, उससे प्रयोजन नहीं सधता, ऐसा अभिप्राय मन में रखकर कहते हैं
( यत) जो [ निजबोधात ] आत्मज्ञान से [ बाह्यं] बाहर ( रहित) [ ज्ञानमपि ] शास्त्र वगैरहा का ज्ञान भी है, [ तेन ] उस ज्ञान से [ कार्य न] कुछ काम नहीं [ येन] क्योंकि [ तपः ] वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान रहित तप [क्षणेन ] शीघ्र ही [ जीवस्स] जीव को [ दुःखस्य] दुख का कारण [ भवति ] होता है।।२६३ ।। (श्री परमात्मप्रकाश, अध्याय २, दोहा ७५, भावार्थ भी पढ़ना,
श्री योगीन्दु देव) ११४
*यदि ज्ञान का स्वभाव पर को जानने का होवे तो उसमें आनन्द होना चाहिये
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