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अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनको पंच परमेष्ठी कहते हैं। अरहंतादिक परमपद हैं और जो परमपद में स्थित हों उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। पाँच प्रकार के होने से उन्हें पंच परमेष्ठी कहते हैं।
अरहंत जो गृहस्थपना त्यागकर, मुनि धर्म अंगीकार कर, निज स्वभाव साधन द्वारा चार घाति कर्मों का क्षय करके अनंत । चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंतवीर्य) रूप बिराजमान हुए वे अरहंत हैं।
अरहंत परमेष्ठी शास्त्रों में अरहंत के ४६ गुणों (विशेषणों) का वर्णन है। उनमें कुछ विशेषण तो शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और कुछ आत्मा से। ४६ (छयालीस) गुणों में १० तो जन्म के अतिशय हैं, जो शरीर से संबंध रखते हैं। १० केवलज्ञान के अतिशय हैं, वे भी बाह्य पुण्य सामग्री से संबंधित हैं, तथा १४ देवकृत अतिशय तो स्पष्ट देवों द्वारा किए हुए हैं ही। ये सब तीर्थंकर अरहंतों के ही होते हैं, सब अरहंतो के नहीं। आठ प्रातिहार्य भी बाह्य विभूति हैं। किंतु अनंत चतुष्टय आत्मा से संबंध रखते है, अतः वे प्रत्येक अरहंत के होते हैं। अतः निश्चय से वे ही अरहंत के गुण हैं।
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