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________________ तृतीयो व्यवहारतरङ्गः [मूल] धरणीतलनिक्षिप्तधनेनान्ते सुखं यदि। तदा वन्ध्यासुतोऽपि स्यात् सुखी खकुसुमार्चितः॥२१०॥(३.१६) (अन्वयः) यदि धरणीतलनिक्षिप्तधनेन अन्ते सुखं स्यात्, तदा वन्ध्यासुतोऽपि, खकुसुमार्चितोऽपि सुखी स्यात्। (अर्थः) यदि पृथ्वी के अंदर छिपाए हुए धन से अंत में सुख होता तो आकाश के पुष्प से पूजित बांझ का पुत्र भी सुखी होता। |मूल] स्तावं स्तावं कदर्थित्वं प्रापितायार्थिने धनी। ददाति दानं तेनासौ तत्पापान्नैव मुच्यते॥२११॥(३.१७) (अन्वयः) धनी कदर्थित्वं स्तावं स्तावं प्रापिताय अर्थिने दानं ददाति तेनासौ तत्पापात् नैव मुच्यते। (अर्थः) धनवान कुछ मांगने की इच्छा से आये हुए अर्थी की दुरवस्था को कोसते हुए दान देता है, उससे यह उस पाप से मुक्ति नही होता। [मूल] प्रशंसार्थं हि दातारः कति नो सन्ति भूतले?। परलोकहितार्थाय द्वित्राः सन्ति न सन्ति वा॥२१२॥(३.१८) (अन्वयः) प्रशंसार्थं हि दातार: भूतले कति नो सन्ति?, परलोकहितार्थाय द्वित्राः सन्ति न सन्ति वा। (अर्थः) प्रशंसा के लिए दान देने के लिए इस पृथ्वी पर कितने नहि है? अर्थात् बहुत है। लेकिन परलोक के हित के लिए दान देने वाले दो-तीन भी है या नहीं। [मल] प्रस्तावसदृशं दानं दत्वाऽर्थिभ्यः सभासु यः। अनुतापकरः पश्चात्तद्धर्ममपि नाशयेत्॥२१३॥(३.१९) (अन्वयः) यः अर्थिभ्यः प्रस्तावसदृशं दानं दत्त्वा, पश्चाद् सभासु अनुतापकरः (सः) धर्ममपि नाशयेत्। (अर्थः) जो अर्थी को प्रस्ताव के समान दान देकर सभा में पश्चाताप करता है वह उस धर्म का भी नाश करता है। [मूल| न येनाकारि विद्येयं जिह्वाग्राङ्गणनर्तकी। सभायां स कथं ब्रूते वाक्यं वाचाम्पतिर्यथा॥२१४॥(३.२०) (अन्वयः) येन जिह्वाग्राङ्गणनर्तकी इयं विद्या नाकारि, स सभायां वाक्यं कथं ब्रूते यथा वाचाम्पतिः। (अर्थः) जिसके द्वारा विद्या जिह्वा के अग्रभाग पर नर्तकी समान सिद्ध नहि किया वह सभा में कैसे बोलता है, वाणी का पति जैसे वाक्य (बोलता है)। [मूल] कीर्तिं लक्ष्मीं धृति रूपमारोग्यं बुद्धिवैभवम्। कल्पवल्लीव विद्येयं सन्तुष्टा किं न यच्छति?॥२१५॥(३.२१)
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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