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द्वितीयो नयतरङ्गः
(अर्थः)
[मूल]
(अर्थः)
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अच्छे वंशमें जन्म प्राप्त राजा की विमल कीर्ति, निपुण नर्तकी की तरह हमेशा नीति रूपी आंगन में ही नृत्य करती है। उस नृत्य में (युद्ध की) विजय दुंदुभि का नाद ताल देता है, उस ताल के समूह विविध प्रकार के नृत्य होता है जिससे तीन लोक का श्रम शांत होता है।
गौरा भाति च यस्य गौरवगुणैर्विश्वम्भरेवापरा रत्नालङ्कृतिसोज्ज्वलाखिलपरस्त्रीसोदरस्य प्रिया।
शृङ्गारादिरसेन कान्तसुभगा सङ्ग्रामसिंहस्य तत्
प्रोक्ते बुद्धिसुधाम्बुधौ नयतरङ्गोऽयं द्वितीयोऽभवत् ॥१९४॥(२.१०७) (शार्दूलविक्रीडित) (अन्वयः) यस्य च अखिलपरस्त्रीसोदरस्य रत्नालङ्कृतिसोज्ज्वला गौरवगुणैः अपरा विश्वम्भरा इव शृङ्गारादिरसेन कान्तसुभगा प्रिया गौरा भाति (तस्य) सङ्ग्रामसिंहस्य प्रोक्ते बुद्धिसुधाम्बुधौ अयं द्वितीयः नयतरङ्गः अभवत्।
परस्त्री के भाइ समान जिसकी रत्न और अलङ्कार से उज्ज्वल, गौरवगुण से दूसरी पृथ्वी के समान, शृंगारादि रसों से कान्त और सुभग गौरा नामक पत्नी है उस संग्रामसिंह विरचित बुद्धिसागर ग्रंथ में दूसरा नयतरङ्ग (पूर्ण) हुआ।
॥इति श्रीसङ्ग्रामसिंहविरचिते बुद्धिसागरे द्वितीयो नयतरङ्गः ॥
१. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८