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बुद्धिसागरः
[मूल]
[मूल] अधिकारनियुक्तानां मध्ये को हितकारकः?।
को दण्ड्यः ? कश्च पूजार्हः? प्रेषणीयोऽस्ति कः क्वचित्?॥१०५॥(२.१८) कस्मिन् देशे च गन्तव्यम्? कः शत्रुः? किं बलं मम?।
कोशे राज्यतरोर्मूले का वृद्धिः? को व्ययो दिने?॥१०६॥(२.१९) (चतुर्भिः कुलकम्) (अन्वयः) कृतदेहविशुद्धिः, गतालस्यः, जितेन्द्रियः, चरचारुविलोचनः यः (स) संसारसिन्धुतरणे अव्यक्तरूपिणं
सेतुं जगत्कर्तारम्, अव्ययम् परमात्मानं संस्मृत्य अधिकारनियुक्तानां मध्ये को हितकारकः?, को दण्ड्यः ?, कश्च पूजार्हः?, कः क्वचित् प्रेषणीयोऽस्ति?, कस्मिन् देशे च गन्तव्यम्?, कः शत्रुः?, किं
बलं मम?, राज्यतरोः मूले कोशे का वृद्धि?, को व्ययो दिने? इति नित्यं चिन्तयेत्। (अर्थः) जिसने देह की शुद्धि की है, जिसका आलस गया है, जिसने इंद्रियों को जिता है, गुप्तचरों में जिसकी
अच्छी आखें है ऐसा, जो संसार रूपी सागर को तरने के लिए सेतु समान,जगत के कर्ता, अव्यक्तरूपी, जिसका कभी नाश होता नहीं ऐसे परमात्मा का स्मरण करके अधिकारनियुक्ति में कौन हितकारक है?, कौन दण्डनीय है?, कौन पूजा योग्य है?, कौन कहा भेजने योग्य है? और कौन से देश में जाना चाहिए?, शत्रु कौन है?, मेरा बल क्या है?, राज्यरूपी वृक्ष के मूल ऐसे कोश में वृद्धि
कैसे (होगी)?, दिन में व्यय क्या हैं? इस प्रकार नित्य चिंतन करना चाहिए। [मूल] सुज्ञातं भक्षयेद्दन्तकाष्टं प्रातरुदङ्मखः।
मुकुरादौ मुखं दृष्ट्वा पञ्चाङ्गश्रवणं ततः॥१०७॥(२.२०) (अन्वयः) प्रातः उदङ्मुखः सुज्ञातं दन्तकाष्ठं भक्षयेत्, ततः मुकुरादौ मुखं दृष्ट्वा पञ्चाङ्गश्रवणम्। (अर्थः) सुबह पश्चिम दिशा में मुख करके अच्छी तरह से जानकर दंतकाष्ठ का भक्षण करे, उसके बाद आयने
में मुख को देखकर पंचांग का श्रवण करें। [मूल] पञ्चाङ्गं प्रातरुत्थाय यः शृणोति नराधिपः।
दुर्दशा दुर्यशो नश्येत्तस्य दुःस्वप्नजं फलम्॥१०८॥(२.२१) (अन्वयः) यः नराधिपः प्रातः उत्थाय पञ्चाङ्गं शृणोति, तस्य दुःस्वप्नजं फलं दुर्दशा दुर्यशः नश्येत्। (अर्थः) जो नराधिप सुबह उठकर पंचांग सुनता है उसका दुष्ट स्वप्न से उत्पन्न हुआ फल, दुर्दशा, दुष्ट कीर्ति
नष्ट होती है। [मूल] प्राणाचार्यवचः कुर्यान्नित्यदानं वितीर्य च।
विनीतवेषाभरणस्ततो धर्मसभां विशेत्॥१०९॥(२.२२) (अन्वयः) प्राणाचार्यवचः कुर्यात्, विनीतवेषाभरणः नित्यदानं वितीर्य, ततः च धर्मसभां विशेत्। (अर्थः) प्राण के समान आचार्य की आज्ञा का पालन करें, विनीत वेशाभरण किया हुआ(राजा) नित्य दान
को देकर धर्म सभा में प्रवेश करे।