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[द्वितीयो नयतरङ्गः]
मूल] जयति जगत्त्रयजननी देवी वाग्वादिनी जगद्वन्द्या।
यत्स्मरणाभरणौघैः कविता कमनीयतां याति॥८८॥(२.१) (अन्वयः) यत् स्मरणाभरणौघैः कविता कमनीयतां याति (सा) जगद्वन्द्या, जगत्त्रयजननी, वाग्वादिनी देवी
जयति। (अर्थः) जिसके स्मरण रूप आभरण से काव्य चाहने योग्य होता है ऐसी जगत की वन्दनीय, तीनों लोक की
जननी सरस्वती देवी विजयी हो। [मूल] श्रीवीतरागपदपङ्कजचञ्चरीको वाग्वादिनीचरणचिन्तनचित्तवृत्तिः।
सङ्ग्रामनामकविकल्पतरुः करोति, धीसागरं नयतरङ्गकरम्बितार्थम्॥८९॥(२.२) (अन्वयः) श्रीवीतरागपदपकजचञ्चरीकः, वाग्वादिनीचरणचिन्तनचित्तवत्तिः, सङग्रामनामकविकल्पतरुः
नयतरङ्गकरम्बितार्थं धीसागरं करोति। (अर्थः) श्री महावीर के चरणरूपी कमल के भ्रमर के समान, सरस्वती के स्वरूप का चिन्तन करने में
चित्तवृत्तिवाला, संग्राम नामक कविश्रेष्ठ नय रूपी तरंगों से मिश्रित विषयवाले बुद्धिसागर की रचना
करता है। [मूल] युक्तं समौ सज्जनदुर्जनावुभौ यतो भवेतां खलु पापहारिणौ।
सन्दर्शनात् संसदि दोषवादात्तच्चित्रमेको गतिमेति नापरः॥९०॥(२.३) (अन्वयः) सज्जनदुर्जनौ उभौ समौ (इति) युक्तं, यतः संसदि सन्दर्शनात् दोषवादात् पापहारिणौ खलु भवेताम्,
एको गतिमेति नापरःतच्चित्रम्। (अर्थः) सज्जन और दुर्जन समान है यह बात सही है क्यों कि (सज्जन) दर्शन से पाप का हरण करता है
और (दुर्जन) सभा में (हमारे) दोष कहकर पाप का हरण करता है। आश्चर्य केवल इस बात का है
कि- एक (सज्जन) गति (सद्गति) को प्राप्त करता है और दूसरा गति (सद्गति) को प्राप्त नहि करता है। [मूल| सुवर्णालङ्कृता शुद्धा स्वदेशीयकवेः कृतिः।
सुवृत्तापि गृहस्त्रीव दुर्वृत्तेभ्यो न रोचते॥९१॥(२.४) (अन्वयः) स्वदेशीयकवेः सुवर्णालङ्कृता, सुवृत्ता शुद्धा अपि कृतिः दुर्वृत्तेभ्यो (नरेभ्यः) गृहस्त्रीव न रोचते। (अर्थः) शिथिल चारित्रवाले पुरुषों को अपनी सोने से अलंकृत , शुद्ध और सच्चारित्रसंपन्न स्त्री भी अच्छी
नही लगती। उसी तरह शिथिल कवि को अपने देश के कवि की अच्छे शब्दों से अलंकृत , दोषरहित और अच्छे वृत्तों में बद्ध कविता भी अच्छी नहीं लगती।