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चतुर्थः प्रकीर्णकतरङ्गः
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(अन्वयः) इति मत्वा च संसारतरणेप्सुभिः सर्वज्ञः परमात्मा परः पुमान् वीतरागः चिरं ध्येयः। (अर्थः) ऐसा मान के संसार से तरने की इच्छा करने वालों के द्वारा सर्वज्ञ, परमात्मा, श्रेष्ठ पुरुष ऐसे वीतराग
का दीर्घकाल ध्यान करना चाहिए।
[मूल] योगीन्द्रध्यानगम्यो यः करुणासिन्धुरव्ययः।
मुमुक्षिभिर्यथा ध्येयस्तद् ध्यानमधुनोच्यते ॥३८०॥(४.११५) (अन्वयः) योगीन्द्रध्यानगम्यः करुणासिन्धुः अव्ययः यः मुमुक्षिभिः यथा ध्येयः तद् ध्यानम् अधुना उच्यते। (अर्थः) योगींद्रों को ध्यान से प्राप्त होने वाला, करुणा का सागर, जिसका नाश नही होता है ऐसा जो
मुमुक्षुओं के द्वारा जैसे ध्यान करने योग्य है वह ध्यान अब कहते है। मूल] पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं च सुसिद्धिदम्।
रूपातीतमिति ध्यानं चतुर्दोक्तं मनीषिभिः॥३८१॥ (४.११६) (अन्वयः) पिण्डस्थम्, पदस्थम्, रूपस्थं, रूपातीतम् इति मनीषिभिः चतुर्धा सुसिद्धिदं ध्यानम् उक्तम्। (अर्थः) पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ऐसा विद्वानों के द्वारा चार प्रकार का अच्छी सिद्धि देने वाला
ध्यान कहा गया है। [मूल] अन्तःकरणसंस्थं यच्छरीरे निश्चलं भवेत्।
तन्मयत्वादिशुद्धं तत् पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते॥३८२॥ (४.११७) (अन्वयः) यत् शरीरे अन्तःकरणसंस्थं निश्चलं भवेत् तत् तन्मयत्वादिशुद्ध पिण्डस्थं ध्यानम् उच्यते। (अर्थः) जो शरीर, अन्तकरण में संस्थित ऐसा निश्चल है, वह तन्मयत्व आदि से शुद्ध ऐसा पिंडस्थ ध्यान
कहा जाता है। [मूल महामन्त्रे च मन्त्रे च मालामन्त्रेऽथवा स्तुतौ।
स्वप्नादिलब्धमन्त्रे वा पदस्थं ध्यानमुच्यते॥३८३॥(४.११८) (अन्वयः) महामन्त्रे, मन्त्रे, मालामन्त्रे, स्तुतौ अथवा स्वप्नादिलब्धमन्त्रे वा पदस्थं ध्यानम् उच्यते। (अर्थः) महामंत्र में, मंत्र में, माला मंत्र में (जाप के मंत्र) स्तुति में अथवा स्वप्न आदि में प्राप्त हुए मंत्र में (जो
ध्यान होता है वह) पदस्थ ध्यान कहा जाता है। [मूल] मूर्तिस्वरूपमालम्ब्य मनोज्ञमविकारकम्।
यथावस्थितरूपेण ध्यानं रूपस्थितं हि तत्॥३८४॥ (४.११९) (अन्वयः) मनोज्ञं अविकारकं मूर्तिस्वरूपम् आलम्ब्य यथा अवस्थितरूपेण ध्यानं तत् हि रूपस्थितम्। (अर्थः) मनोज्ञ और अविकार की जनक मूर्ति के स्वरूप का आलम्बन लेकर उसका यथावस्थित रूप से
ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
१. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८