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अनित्य
अशरण :
संसार :
एकत्व :
अन्तत्व :
अशुचि:
आस्रव:
संवर
बारह भावना
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार ।। 1।।
दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार । मरती विरियाँ जीव को कोई न राखनहार ।।2।।
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा-वश धनवान | कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।। 3 ।।
आप अकेलो अवतरै, मरै अकेलो होय ।
यूं कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय || 4 ||
जहाँ देह अपनी नही, तहाँ न अपनों कोय ।
घर सम्पत्ति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ।। 5 ।।
दिपै चाम- चादर मढ़ीं, हाड़ पींजरा देह |
भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन - गेह ।। 6 ।।
मोह नींद के जोर, जगवाही घूमै सदा । कर्म-चोर चहुँ ओर, सरवस लूटैं सुध नहीं ।। 7।।
सत्गुरू देय जगाय, मोह नींद जब उपशमै । तब कछु बनै उपाय, कर्म चोर आवत रूकै ।। 8 ।।
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निर्जरा
लोक :
ज्ञान- दीप तप-तेल भर, घर शोधै भ्रम छोर । या विध बिन निकसै नहीं, बैठे पूरब चोर ।। पंच महाव्रत संचरन, समिति पंच परकार । प्रबल पंच इंद्रिय - विजय, धार निर्जरा सार || 9 ||
धर्म
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष-संठान । तामैं जीव अनादि तैं, भरमत हैं बिन ज्ञान
बोधि दुर्लभ : धन-कन कंचन राज सुख, सबहि सुलभ करि जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान | 11 ||
|| 10 ||
जाँचे सुर-तरू देय सुख, चिंतत चिंता रैन । बिन जाँचे बिन चिंतये, धर्म सकल सुख दैन || 12 ||
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