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5. अहिंसा और जीवन के प्रति आदरभाव
अपने मन, वचन और काया के माध्यम से सभी जीवों के प्रति आदरभाव रखने से हमारा आध्यात्मिक स्तर उन्नत होता है, इससे हमारे 'कर्मों का स्तर भी प्रभावित होता है। बुरे कर्मों से तीव्र कर्म-बंध होता है और अच्छे कर्मों से मंद या मृदु कर्म बंध होता है।
इस पृष्ठ के सामने दिये गये चित्र में जीवन का अनुक्रम दिया गया है। इस धारणा के आधार पर ही शाकाहार (आहार-संबंधी कुछ अतिरिक्त प्रतिबंध भी) आत्म-विजय का एक सूत्र बन जाता है। इसी प्रकार शराब एवं अन्य मादक द्रव्य भी न केवल इसलिये प्रतिबंधित हैं कि उनमें लाखों सूक्ष्मजीव होते हैं, अपितु उनसे परिणामों में विकार होता है, कषायें उत्पन्न होती हैं जो आत्म विजय के लिये परम शत्रु हैं।
6. रत्नत्रय
जैनधर्म की शिक्षाओं को 'रत्नत्रय' के रूप में संक्षेपित किया जा सकता है:
(1) सम्यक् दर्शन,
(2) सम्यक् ज्ञान,
( 3 ) सम्यक् चारित्र,
स्वचालित विश्व, आत्मा, कर्म तथा नव पदार्थो में विश्वास रखना सम्यक् दर्शन या दृष्टि है। इनके विषय में अनेकांतवाद की दृष्टि से जानकारी
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करना सम्यक् ज्ञान है। इनके परिणाम स्वरूप आत्म-विजय के मार्ग के अनुरूप आचार का पालन करना सम्यक् चारित्र है। सिद्ध
मनुष्य
पशु
कंद पौधे
00
102
10
5
{ 4
4x 101
3x 10-1
2x 10-1x
10- 2 x 10-3 *
पृथ्वी, जल,
वायु, अग्नि एवं 5 x 10+ * सूक्ष्म जीवाणु 101
अचेतन
0
आध्यात्मिकतः उच्चतर मनुष्य
औसत मनुष्य अपराधी मनुष्य
पंचेंद्रिय
चार इंद्रिय तीन इंद्रिय दो इंद्रिय
एकेंद्रिय (सांद्रित ) एकेंद्रिय
सूक्ष्म जीवाणु
विभिन्न जीवों की आत्मिक शुद्धता की कोटि को व्यक्त करने वाली जीवन - धुरी ( यह चित्र रैखिक माप पर नहीं है ) ।
सिद्धान्त
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