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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
आँखें फाड़-फाड़कर श्री प्रीतिकर मुनिराज के चरणकमल की ओर देख रहा था तथा उनके क्षणभर के स्पर्श से अत्यन्त ही प्रसन्न हो रहा था।
इस प्रकार उन दोनों मुनिभगवन्तों ने परम अनुग्रहपूर्वक वज्रजंघ इत्यादि जीवों को प्रतिबोध कर अपूर्व सम्यग्दर्शन प्राप्त कराया, तत्पश्चात् वे दोनों चारण मुनिवर अपने योग्य देश में जाने के लिये तैयार हुए, तब वज्रजंघ के जीव ने उन्हें प्रणाम किया और परमभक्तिपूर्वक कितनी ही दूर तक उनके पीछे-पीछे गमन किया... जाते-जाते दोनों मुनिवरों ने उन्हें आशीर्वाद देकर हितोपदेश दिया... और कहा कि आर्य ! फिर से दर्शन हो... तू इस सम्यग्दर्शनरूपी सत्यधर्म को कभी नहीं भूलना - इतना कहकर वे दोनों गगनगामी मुनिवर तुरन्त ही आकाशमार्ग से अन्तर्हित हो गये।
जब दोनों मुनिवर चले गये, तब वह वज्रजंघ का जीव क्षणभर तो बहुत ही उत्कण्ठित हो गया। सत्य ही है कि प्रियजनों का वियोग मन को सन्ताप करता है। बारम्बार मुनिवरों के गुणों के चिन्तवन द्वारा अपने मन को आर्द करके वह वज्रजंघ बहुत समय तक धर्म सम्बन्धी विचार इस प्रकार करने लगा
अहा! कैसा आश्चर्य है कि साधु पुरुषों का समागम हृदय के सन्ताप को दूर करता है, परम आनन्द को बढ़ाता है और मन की वृत्ति को सन्तुष्ट करता है और उन साधुओं का समागम प्राय: दूर से ही पाप को नष्ट करता है, उत्कृष्ट योग्यता को पुष्ट करता है और कल्याण को बहुत ही बढ़ाता है। उन साधु पुरुषों ने मोक्षमार्ग के साधन में ही सदा अपनी बुद्धि जोड़ी है, लोगों को प्रसन्न करने का
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