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________________ www.vitragvani.com 40] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 सन्त बुलाते हैं-आनन्द के धाम में संसार के राग में सोये हुए अज्ञानी प्राणियों को जगाकर आनन्द के धाम में बुलाते हुए श्री गुरु कहते हैं कि - अरे जीव! तू तो अतीन्द्रिय आनन्दरस का समुद्र है; आनन्द ही तेरा स्वरूप है और उसे भूलकर तू इन रागादि दुःख-भावों को निजपद मानकर इनमें मोहित हो रहा है। यह क्या तुझे शोभा देता है ? तेरा तो आनन्दधाम है । उस आनन्दधाम में तू आ! राग तेरा पद नहीं है। अरे! देखता-जानता चैतन्यस्वभाव तू स्वयं, और अपने स्वरूप को तू न देखे तथा रागादि अज्ञानभावों को ही अपना स्वरूप मानकर उनका ही अनुभव करे-ऐसा मोहान्धपना कहीं तुझे शोभा नहीं देता। ऐसा अन्धपना अब तू छोड़... और तेरे चैतन्यमय स्व - पद को देखकर उसे अनुभव में ले। अहा! चैतन्यप्रभु आत्मा ज्ञानपद में बसेगा या राग में बसेगा? राग तो चैतन्यप्रभु को रहने के लिये अपद है; चैतन्यप्रभु तो एक ज्ञानपद में ही रहनेवाला है। अरे! चैतन्यप्रभु! तुझे तेरे चैतन्यपद के आनन्द का वेदन शोभा देता है; राग का वेदन तुझे शोभा नहीं देता। 'राग' कहने पर उसके साथ द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हर्षशोक, शुभ-अशुभवृत्तियाँ, ये सब परभाव समझ लेना। इन समस्त परभावों में कहीं चैतन्य का स्थान नहीं है। चैतन्य के लिये वे अस्थान हैं, अपद हैं, चैतन्यपद तो रागरहित है। चैतन्य महाराजा तो सुख के धाम में बसे वैसा है; वह रागादि Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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