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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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चैतन्यपद, उसका तो जो अनुभव नहीं करता और राग को ही निजपद समझ रहा है, वह जीव अपने चैतन्यभाव को भूला हुआ है और चार गति के भाव में सो रहा है। जिस-जिस भव में जिस पर्याय को धारण करता है, उस पर्याय को ही अनुभव करने में लवलीन है; मैं देव हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं रागी हूँ-ऐसा अनुभव करता है, परन्तु उनसे भिन्न अपने शुद्ध ज्ञायकपद को अनुभव नहीं करता, वह अन्ध है । वह विनाशी भावोंरूप ही अपने को अनुभव करता है परन्तु अविनाशी निजपद को नहीं देखता। वह निजपद का मार्ग भूलकर विपरीतमार्ग में चढ गया है। सन्त उसे आवाज लगाते हैं कि अरे जीव! रुक जा! विभाव के मार्ग से वापस मुड़... वह तेरे सुख का मार्ग नहीं है, वह तो मायाजाल में फँसने का मार्ग है... इसलिए उस मार्ग से रुक जा और इस ओर आ... इस ओर आ! तेरा आनन्दमय सुखधाम यहाँ है। इस ओर आ। देव तू नहीं, मनुष्य तू नहीं, रागी तू नहीं; तू तो शुद्धचैतन्य है। तेरा अनुभव तो चैतन्यमय है। चैतन्य से भिन्न कोई पद तेरा नहीं-नहीं; वह तो अपद है-अपद है; इसलिए जाग... और निजपद को सम्हाल।
अरे! ऐसा चैतन्यपद देखकर उसे साधने के लिये आठ-आठ वर्ष के कुँवर राजपाठ छोड़कर वन में चले गये, अन्तर में अनुभव किये हुए चैतन्यपद में लीन होने के लिये वीतरागमार्ग में विचरने लगे। जिस चैतन्यपद के अनुभव के समक्ष इन्द्रासन भी अपद लगता है, उसकी महिमा की क्या बात ! अरे, तेरा शुद्धचैतन्यस्वरूप जैसा है, वैसा देख तो सही! अमृत से भरपूर इस चैतन्य सरोबर को छोड़कर, ज़हर के समुद्र में मत जा। भाई ! दु:खी होने के मार्ग में मत जा... मत जा। इस परभाव के मार्ग से पराङ्मुख हो... पराङ्मुख हो... इस चैतन्य के मार्ग में आ रे, आ। बाहर में तेरा मार्ग नहीं है;
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