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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
अकेले स्वर्ण की कीमत गिनता है; उसी प्रकार शुद्धनयवाले ज्ञानी, आत्मा को और राग को मिलावट करके आत्मा की कीमत नहीं गिनते परन्तु राग को पृथक् करके अकेले ज्ञान-आनन्दरूप हुए शुद्ध आत्मा की कीमत गिनते हैं। वही शुद्धनय की दृष्टि से सच्चे आत्मा का अनुभव करते हैं, वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है, वही मुमुक्षु जीव का जीवन है।
परभावों से भिन्न आत्मा के भूतार्थस्वभाव की अनुभूति, वह सम्यग्दर्शन है। कर्म के साथ मिलावटवाले अशुद्धभाव हैं, वे अभूतार्थ हैं और निर्मल गुण-पर्याय के भेद भी व्यवहारनय के विषय में हैं; शुद्ध आत्मा की अनुभूति में वे भेद नहीं हैं, इसलिए वे सब भेद अभूतार्थ हैं । वस्तु का स्वरूप समझने के लिये भेदरूप व्यवहार का उपदेश तो बहुत आता है परन्तु उसमें उस व्यवहार का आश्रय करने का प्रयोजन नहीं है। अभेदस्वभाव बतलाने के लिये व्यवहारी जीव की भाषा में व्यवहार से भेद करके कहने में आया है परन्तु कहनेवाले का आशय परमार्थस्वरूप बतलाने का है और श्रोता भी यदि ऐसा आशय समझकर परमार्थस्वरूप को लक्ष्य में ले तो उसने सच्चा श्रवण किया है। ___परमार्थस्वरूप अभेद आत्मा को दृष्टि में लेकर उसका अनुभव करने से उसमें गणभेद या पर्यायभेद दिखायी नहीं देते, उसमें राग या परद्रव्य का सम्बन्ध नहीं है। ऐसी दृष्टिपूर्वक पर्याय का भी ज्ञान धर्मी करता है, वह व्यवहार है। अपनी शुद्धपर्याय को भेद पाड़कर जानना, वह भी व्यवहार है और उस भूमिका में जिनेन्द्रभगवान की भक्ति का भाव, गुरु के बहुमान का भाव, शास्त्र रचना इत्यादि का भाव, गृहस्थ को जिनपूजा, आहारदान इत्यादि का भाव-ऐसे भावों को उस-उस काल में धर्मी जानता है, वह व्यवहार है। ज्ञान
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