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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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परन्तु यहाँ शुद्धोपयोग के फलरूप पूर्ण सुख की बात है।
शुद्धोपयोग से आत्मा स्वयं अपने में लीन होने पर, अतीन्द्रिय -सुख उत्पन्न हुआ; उसमें अन्य किसी साधन का आश्रय नहीं, अकेले आत्मा के ही आश्रय से वह सुख प्रगट हुआ है। उसे एक आत्मा का ही आश्रय है और अन्य के आश्रय से निरपेक्ष है, अन्य किसी का आश्रय उसे नहीं, इस प्रकार अस्ति-नास्ति से कहा।
आत्मा से ही उत्पन्न और विषयों से रहित-ऐसा सुख ही सच्चा सुख है, और उस सुख का साधन, शुद्धोपयोग है; इसलिए वह शुद्धोपयोग उपादेय है। ऐसे शुद्धोपयोग के फलरूप परम सुख का स्वरूप बतलाकर उस ओर आत्मा को प्रोत्साहित किया है। हे जीव! अतीन्द्रियसुख के कारणरूप ऐसे शुद्धोपयोग में उत्साहसहित आत्मा को लगा।
संसार के जितने इन्द्रिय-सुख हैं, उन सबसे शुद्धोपयोग का सुख बिल्कुल भिन्न जाति का है, इसलिए वह अनुपम है, उसे अन्य किसी की उपमा नहीं दी जा सकती। अहो! शुद्धोपयोगी जीव का परम अनुपम सुख, वह अज्ञानियों के लक्ष्य में भी नहीं आता। आगे कहेंगे कि सिद्धभगवन्तों के और केवली भगवन्तों के उत्कृष्ट अतीन्द्रियसुख का स्वरूप सुनते ही जो जीव, उत्साह से उसका स्वीकार करते हैं, वे आसन्न भव्य हैं। इस अतीन्द्रियसुख के वर्णन को 'आनन्द अधिकार' कहा है। हे जीवों! विषयों में सुखबुद्धि छोड़कर, आत्मा के आश्रय से ऐसा परम आनन्दरूप परिणमन करो।
यह सुख शुद्धोपयोग द्वारा प्रगट होता है। शुद्धोपयोग द्वारा प्रगट
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