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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [171 ज्ञान और आचरण सब ही मिथ्या है, उसमें जरा भी आत्मा का हित नहीं है; उसमें मात्र लोकरंजन है, आत्मरंजन नहीं, आत्मा का सुख नहीं । व्यवहारश्रद्धा-ज्ञान- चारित्र, वे सब सम्यग्दर्शन बिना कैसे हैं ?-तो कहते हैं कि वे सम्यकता न लहे अर्थात् सच्चे नहीं परन्तु खोटे हैं, उनके द्वारा मोक्षमार्ग जरा भी सधता नहीं है। सम्यग्दर्शनपूर्वक ही सच्चे ज्ञान - चारित्र होते हैं और मोक्षमार्ग सधता है; इसलिए वह धर्म का मूल है। अहो! ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन को, हे भव्य जीवों ! तुम धारण करो, बहुमान से उसकी आराधना करो । हे सुज्ञ समझ आत्मा ! तू समझ, तू चेत जा, तू सावधान हो और प्रमाद किये बिना शीघ्र सम्यग्दर्शन प्रगट कर । यह सम्यग्दर्शन का उत्तम अवसर है, बारम्बार ऐसा अवसर मिलना दुर्लभ है। इसलिए ऐसा उत्तम उपदेश सुनकर, एक क्षण भी गँवाये बिना अभी ही अन्तर में अपने शुद्ध आत्मा की अखण्ड अनुभूतिसहित श्रद्धा करके सम्यग्दर्शन के आनन्दमय दीपक प्रगट कर । हे भव्य ! हे सुख के अभिलाषी मुमुक्षु ! सुख के लिये तू ऐसे उत्तम कार्य को तू शीघ्र कर तारो अरे तारो निजात्मा, शीघ्र अनुभव कीजिए । परद्रव्य से भिन्न आत्मा की रुचि, वह सम्यग्दर्शन है। मोक्षार्थी को पहले ऐसा सम्यग्दर्शन अवश्य प्रगट करना चाहिए। मैं ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा हूँ; ये शरीरादि अजीव मैं नहीं; रागादि आस्रव भी मैं नहीं - इस प्रकार देहादि तथा रागादि से भिन्न अपने आत्मा की अनुभूति करने पर सम्यग्दर्शन होता है और सम्यग्दर्शन Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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