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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [135 छोड़कर, ज्ञान की दशा को अन्तर में आनन्द के समुद्र में झुका दिया, वहाँ संयोग, संयोग में रहे और आत्मा अपने आनन्दस्वरूप में आया। ___ चैतन्य के अनुभव में ज्ञान की कोई अद्भुत धीरज और गम्भीरता होती है; चैतन्यसमुद्र अन्दर से स्वयं ही पर्याय में उल्लसित होता है। वहाँ कोई विकल्प नहीं रहते। अन्तर की गहराई में से उसे अपने चैतन्यतत्त्व की अपरम्पार महिमा होती है। अहा! आत्मा अनन्त गम्भीरभावों से भरपूर है। सम्यग्दर्शनरूप हुए आत्मा की अन्दर की स्थिति अत्यन्त गम्भीर होती है। मैं ज्ञायकभाव से भरपूर, परम आनन्द से पूर्ण और इन्द्रियों से पार-ऐसा महान पदार्थ हूँ । चैतन्य से उत्कृष्ट और सुन्दर दूसरी वस्तु जगत में कोई नहीं है। आत्मा का वीतरागी सामर्थ्य अचिन्त्य है, उसके गुणों की विशालता अनन्त है; वह परम शान्तरस की गम्भीरता से भरपूर है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् वह जीव अपने को सदा ऐसा ही देखता है। मति -श्रुतज्ञान को अन्तर्मुख करके अन्तर में आनन्द के नाथ का उसे साक्षात्कार हुआ है। ज्ञान सीधे चैतन्यस्वभाव को स्पर्श कर, उसमें एकत्वरूप परिणमित हुआ, वहाँ नयपक्ष के समस्त विकल्पों से वह पृथक् पड़ गया और निर्विकल्प स्वानुभव के आनन्द से वह आत्मा स्वयमेव सुशोभित हो उठा। जिस प्रकार तीर्थंकरदेव का शरीर, आभूषण के बिना ही स्वयमेव सुशोभित होता है, उसी प्रकार चैतन्यतत्त्व स्वयं स्वभाव से ही, विकल्प बिना ही, ज्ञान और आनन्द द्वारा स्वयमेव शोभता है; उसकी शोभा के लिए किसी विकल्प के आभूषण की आवश्यकता नहीं है। विकल्प के लक्षण से भगवान आत्मा लक्षित नहीं होता। विकल्प से भिन्न हुआ जो Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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