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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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ज्ञानी मिल जाते हैं। रागादि से भिन्न ज्ञानचेतनारूप परिणमित ज्ञानी को पहिचानकर, वह उनका समागम करता है और उन ज्ञानी के ज्ञानभावों की पहिचान होने पर, उस आत्मार्थी जीव के परिणाम, आत्मस्वभाव की ओर झुकते हैं। उसकी आत्मार्थिता पुष्ट होती है और राग का रस टूटता जाता है। ऐसा होने पर, कभी नहीं अनुभूत - ऐसी अपूर्व आत्मशान्ति के भाव उसे अपने में जागृत होते हैं। ज्ञानी के सच्चे समागम का ऐसा फल अवश्य आता ही है।
आत्मार्थी जीव को दुर्लभ सत्समागम की प्राप्ति का और आत्मार्थ की पष्टि करके शान्ति के वेदन का यह सुनहरा अवसर है। उसे ऐसा लगता है कि अब मेरा काम एक ही है कि सब में से रस छोड़कर, प्रतिसमय स्व की सम्हाल करके, सब प्रकार से आत्मवस्तु की महिमा घोंट-घोंटकर, राग से भिन्न चैतन्यभाव का अन्तर्वेदन करना। वह विचार करता है कि अब मैं मेरे प्रयत्न में गहरा उतरूँगा। मेरा आत्मा ही आनन्द का महा सागर है, उसमें डुबकी लगाकर, उसके एक बूंद का स्वाद लेने से भी रागादि समस्त परभावों का स्वाद छूटकर चैतन्य के आनन्द का कोई अपूर्व स्वाद वेदन में आता है, तो सम्पूर्ण आनन्द के समुद्र की क्या बात! कोई तीव्र ताप में से शीतल पानी के सरोबर में डुबकी मारे और उसे शीतलता का अनुभव हो, इसी प्रकार इस संसार में अनादि से अज्ञान और कषाय के ताप में संतप्त अज्ञानी जीव, चैतन्य तत्त्व का भान करके शान्त सरोवर में डुबकी मारता है। वहाँ उसे अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है।
धर्मी जीव चाहे जैसे अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों के बीच भी
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