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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [119 वह दृढ़तापूर्वक जानता है कि जड़-चेतन समस्त द्रव्य, लक्षणभेद से भिन्न हैं । जीव का कार्य मात्र जानना और अपने निज परिणाम करना है । जगत् के अन्य पदार्थ और उनके कार्य मेरे नहीं हैं, तथापि उन्हें मेरा मानूँ तो स्वधर्म की मर्यादा का लोप और मिथ्यात्वरूपी महापाप होता है - ऐसा मैं कैसे करूँ ? अनादि से अज्ञानवश अन्य पदार्थ और उनके परिणाम के प्रति अनेक प्रकार के अभिप्राय देता आया, इतना ही नहीं परन्तु उन्हें निज अभिप्रायानुसार बदलने की बुद्धि से अनन्त राग-द्वेष कर-करके दुःखी हुआ। अरे रे ! अज्ञानभाव से तो मैंने अभी तक दुःख... दुःख... और दुःख ही वेदन किया है, परन्तु अब श्रीगुरु-सन्तों के प्रताप से उस दुःख का अन्त आया है। श्री तीर्थंकर भगवान का उपदेश महाभाग्य से मुझे प्राप्त हुआ और अब मुझे पता पड़ा कि मैं तो मात्र मेरे परिणामों का ही कर्ता हूँ । पर के साथ मुझे कोई सम्बन्ध नहीं है; इसलिए उसमें राग-द्वेष करना निरर्थक है । तत्त्वज्ञानपूर्वक इस प्रकार वर्तने से जगत में होनेवाले अन्य परिवर्तनों के प्रति अब उसे कुछ भी लेने-देने की वृत्ति या सुख - दुःख की वृत्ति नहीं रहती; इसलिए मिथ्या क्लेश- कषाय से छूटना सहज हो जाता है और वह अपने चैतन्यस्वरूप की अचिन्त्य महिमा विचारकर, अपना उपयोग स्व आत्मा की ओर मोड़ने का पुरुषार्थ करता है और बाह्य की ओर झुक रही परिणति को वापस मोड़ता है । शान्ति अनुभव करने के लिए शान्तिस्वरूप जो अपनी वस्तु है, उसमें ही उपयोग को ले जाता है क्योंकि निज आत्मा के अतिरिक्त बाहर से कहीं से शान्ति नहीं मिलती। इसका उसे विश्वास है । जिसमें मेरी शान्ति नहीं—ऐसे जगत के समस्त निमित्त-साधन इत्यादि पदार्थों Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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