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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [105 भाव से परिणमन करता है। सविकल्पदशा के समय भी उसे आत्मा का सम्यकश्रद्धा-ज्ञान तो रहता ही है। सम्यग्दृष्टि आत्मा को शुभाशुभभाव वर्तते हैं, तो भी उसे अन्दर तो श्रद्धान होता ही है कि 'यह कार्य मेरा नहीं, मैं परवस्तु का कर्ता नहीं; और राग के साथ मेरी चेतनवस्तु एकमेक नहीं।' वह अपने ज्ञान को राग के साथ एकमेक नहीं करता; सदा दोनों को भिन्न ही जानता है। वह रागादि को भिन्न जानता हुआ उनका कर्ता नहीं होता परन्तु उनका ज्ञाता ही रहता है। सम्यग्दृष्टि को अनुभव में बहुत ही आनन्द आता है। वह श्रुतज्ञान द्वारा केवलज्ञान के साथ केलि करता है-ऐसा कहा है। उसके ज्ञान ने राग के साथ मित्रता (एकत्व) छोड़कर केवलज्ञान -स्वभाव के साथ मित्रता की है और केवलज्ञान को आवाज देकर बुलाया है। ___ ज्ञान को आत्मसन्मुख करने पर, निजरस से भरपूर, पर की अपेक्षा से अरस, आत्मा उसे सच्चे स्वरूप में वेदन में आता है। वह आत्मा किसी नयपक्ष द्वारा खण्डित नहीं होता; ज्ञानी का ज्ञान हमेशा विकल्पों से और संयोगों से भिन्न ही रहता है। विकल्प होने पर भी, विकल्पों से भिन्न परिणमता हुआ वह ज्ञान (ज्ञानपरिणति) ऐसा है कि विकल्पातीत होकर जीव को ठेठ मोक्ष तक पहुँचाता ही है। भेदज्ञान होने पर, वह जीव सकल विकार के कर्तृत्वरहित होकर ज्ञायकरूप शोभित होता है। भेदज्ञान होने पर, जीव, आस्रवों से पराङ्मुख होता है; बन्धभाव से छूटकर मोक्षमार्ग की ओर ढलता जाता है। सम्यग्ज्ञानी, असार और अशरण ऐसे संसार से Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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