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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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वे सच्चे ज्ञानी जो भेदज्ञान से कहते हैं, उनके जैसा भेदज्ञान लक्ष्य में लेकर उसका प्रयत्न करता है। वह उन सच्चे ज्ञानी से आत्मा के अनुभव का वर्णन अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सुनता है और उसमें से अपने प्रयोजनभूत ज्ञानस्वभाव का निर्णय करता है।
वह आत्मा का साधक जीव, जो सच्ची वस्तु बतावे और सत्स्वरूप आत्मा का निर्णय करावे-ऐसे ही देव-गुरु-शास्त्र को मानता है। सत् वस्तु का निर्णय न करावे-ऐसे कुदेव-कुगुरु -कुशास्त्र को आत्मार्थी नहीं मानता। इस प्रकार निर्णय करके वह अपने उपयोग को शुद्धस्वभाव की ओर झुकाता जाता है। __ वह ऐसा मानता है कि मैं सबसे भिन्न एक त्रिकाल ज्ञानस्वभावमात्र ही हूँ, और वही मेरी चीज़ है; उसे ज्ञान के घोलन में यह भासित होने लगता है। मैं शुद्ध चिद्रूप हूँ'-ऐसी उसे धुन चढ़ती है; आत्मा के चिन्तन में उसे सहज ही आनन्द तरंग उठती है और रोमांच उल्लसित होता है। इस प्रकार अभी सविकल्पदशा होने पर भी, उसे स्वभाव की महिमा का लक्ष्य बढ़ता जाता है और वह जीव, शुद्ध आत्मा के लक्ष्य के जोर से आत्मा की ओर आगे ही आगे बढ़ता है। उसे अब एक ही ख्याल रहा करता है कि मैं ऐसा अद्भुत ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ, मेरा ज्ञानतत्त्व विकल्परूप नहीं और ज्ञेयाश्रित मेरा ज्ञान नहीं; ज्ञानस्वरूप में स्वयं हूँ; इस प्रकार अपने परिणाम में ज्ञानस्वभाव को सर्व ओर से निर्णय करके, वह अन्य सबसे भेदज्ञान करता है और अन्दर ढलता है।
अन्दर ही अन्दर ज्ञानस्वभाव का घोलन करते-करते उसे जो शुद्धस्वभाव के रागमिश्रित विचार आते थे, वे भी छूट जाते हैं और
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