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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
मोह बहुत खराब है । परपदार्थ के प्रति मोह के कारण ही आत्मा, परमात्मा की अभेदभक्ति से भ्रष्ट हुआ है । इसलिए सर्व प्रथम परवस्तु की ममतारूप आशा के बन्धन को छोड़ो। परवस्तु की तीव्र आसक्ति छोड़कर, फिर एकान्तवास में जाकर, अन्तर में चैतन्यमूर्ति आत्मा का ध्यान करो। ऐसा करने से अभेदभक्ति होगी और मुक्ति होगी। इस प्रकार भरतजी ने अपनी रानी को उत्तर दिया ।
प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र भरत चक्रवर्ती, संसार में रहे होने पर भी धर्मात्मा थे; उन्हें 96 हजार रानियाँ थीं। वे रानियाँ, भरतजी को धर्म के प्रश्न पूछती हैं और भरतजी उनके जवाब देते हैं ।
रानी ने प्रश्न पूछा कि आत्मा का अनुभव किस प्रकार होता है ? उसे भरतजी उत्तर देते हैं कि आत्मा, शरीर से भिन्न है । आत्मा को भूलकर परपदार्थों में ममता करके जो तीव्र लोभ करता है, वह बुरा है, उस लोभ को मन्द करके एकान्त में जाकर आत्मा का चिन्तवन करना चाहिए । पहले जगत की तीव्र ममता घटाकर, सत्समागम से आत्मा का स्वरूप सुनें, पश्चात् एकान्त में जाकर अन्तर में उसके ध्यान का प्रयत्न करना चाहिए। अनन्त काल से आत्मा के ज्ञान का प्रयत्न नहीं किया, इसलिए एक ही दिन के प्रयत्न से वह ज्ञात नहीं होता, तो उसके लिए तीव्र प्रयत्नपूर्वक बारम्बार अभ्यास करना चाहिए। बाहर में पैसे इत्यादि की प्राप्ति होने में आत्मा का पुरुषार्थ नहीं परन्तु आत्मा का स्वरूप क्या है यह पहचानने में आत्मा का पुरुषार्थ है । वास्तविक जिज्ञासा से अभ्यास करते-करते क्रम-क्रम से आत्मा का अनुभव होता है।
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