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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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भरतजी के साथ आध्यात्मिक तत्त्वचर्चा भरतेश वैभव के एक प्रकरण पर पूज्य गुरुदेवश्री का प्रवचन ___ अभेदभक्ति ही मुक्ति का कारण है... और... भेदभक्ति, बन्ध का कारण है। यह बात भव्य सज्जन पुरुष उल्लास से स्वीकार करते हैं परन्तु जिसकी होनहार खराब है, ऐसा अभव्य जीव इसे स्वीकार नहीं करता।
श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती एक बार उपवास करके बैठे हैं और रानियों के साथ तत्त्वचर्चा करते हैं। वहाँ रानी पूछती है कि हे स्वामी! संसार में दुःख है और अविनाशी सिद्धपद में सुख है, उस सुख का क्या उपाय है ? यह प्रश्न पूछने में रानियों को इतना भान है कि आत्मा के अतिरिक्त शरीरादि में कहीं सुख नहीं है और ऐसा अविनाशी सुख प्राप्त करने की रुचि हुई है; इसलिए प्रेम से प्रश्न करती हैं। यहाँ पति-पत्नी का प्रेम नहीं परन्तु धर्मात्मा के रूप में प्रेम है। __ भरतजी जवाब देते हैं कि आत्मा में से आवरण का नाश करने से वह सुख प्रगट होता है। आत्मा में राग-द्वेष-मोहरूप जो भावआवरण है, उसका नाश करने से सिद्ध-सुख प्रगट होता है।
रानी फिर से पूछती है कि स्वामी ! उस आवरण के नाश करने का क्या उपाय है, वह भी हमें बताओ।
भरतजी जवाब देते हैं कि परमात्मा की भक्ति से आवरण का क्षय होता है। परमात्मा की भक्ति दो प्रकार की है - एक भेदभक्ति और दूसरी अभेदभक्ति । उसमें अभेदभक्ति, उस आवरण के नाश
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