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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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स्वभाव का अवलम्बन, उतना धर्म; बहिर्मुख झुकाव से जो भाव हो, वह धर्म नहीं है।
जो ग्यारह प्रतिमावाले श्रावक हैं, वे सब अन्तर्मुख स्वभाव के अवलम्बन से शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं; उन्हें चिदानन्द ज्ञायकस्वभाव का श्रद्धा-ज्ञान करके, उसका अवलम्बन लेने पर पर्याय-पर्याय में वीतरागभाव की वृद्धि होती जाती है, उसका नाम प्रतिमा है। द्रव्यस्वभाव के आश्रय से ही रत्नत्रय पर्याय होती है; राग या निमित्त के आश्रय से सम्यग्दर्शनादि नहीं होते – ऐसा जिसे भान भी नहीं और पराश्रयभाव से धर्म मानता है, वह तो अज्ञानी है, उसे प्रतिमा कैसी? त्रिकाली चिदानन्द द्रव्य के आश्रय से निर्मल रत्नत्रय पर्याय प्रगट हुई, उसका नाम भगवान का भजन है।
धर्मी को, जिज्ञासु को सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति भक्ति का उल्लास आये बिना नहीं रहता परन्तु वह समझता है कि देव-गुरु -शास्त्र इत्यादि पर की भक्ति का भाव, वह शुभराग है और अपना आत्मा ही परमात्मा है, उसे पहचानकर, रत्नत्रय द्वारा उसकी भक्ति-आराधना-उपासना करना, धर्म है। देव-शास्त्र-गुरु भी ऐसा ही कहते हैं कि तू हमारे प्रति लक्ष्य छोड़कर तेरी आत्मा का भजन कर, तेरा आत्मा ही पूर्ण शक्तिमान परमात्मा है, उसे पहचानकर, उसका भजन कर। जो जीव इस प्रकार करता है, वही अपने आत्मा का वास्तविक भक्त है और वही व्यवहार से देव-गुरु का सच्चा भक्त है।
परिणति को अन्तरोन्मुख करके भगवान आत्मा के आनन्द में लीनता करना, वह भगवान की भक्ति है। बीच में शुभराग हो परन्तु
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