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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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परमानन्द स्वभाव है, चार गति के मूल को उखाड़ देनेवाला है; ऐसे निज परमात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान-आचरण, वह शुद्धरत्नत्रय है – ऐसे शुद्धरत्नत्रय का भजन-आराधन, वह भक्ति है।
यहाँ व्यवहाररत्नत्रय के भजन की बात नहीं ली है, क्योंकि व्यवहाररत्नत्रय में शुभराग है, वह वास्तव में मोक्ष का कारण नहीं है। अन्तर में निज परमात्मतत्त्व के श्रद्धा-ज्ञान-आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय की आराधना-भक्ति, वही मोक्ष का कारण है।
भक्ति, अर्थात् आराधना; शुद्धरत्नत्रय की भक्ति, अर्थात् शुद्धरत्नत्रय की आराधना। मुनिवर, शुद्धरत्नत्रय को आराधते हैं
और श्रावकों को भी रत्नत्रय की अमुक आराधना होती है। निश्चय श्रद्धा-ज्ञान और आंशिक वीतरागी चारित्र उसे भी होता है। स्वभाव के ध्यान द्वारा जो निर्मल पर्याय परिणमित हुई, उसका नाम रत्नत्रय की आराधना और भक्ति है - ऐसी भक्ति से मुक्ति होती है।
* * * सच्चा श्रावक किसे कहते हैं और वह श्रावक किसकी भक्ति करता है ? यह बात चलती है। चैतन्यमूर्ति निज परमात्मतत्त्व, देहादिक से भिन्न है, एक समय में परिपूर्ण ज्ञान शान्ति का पिण्ड है – ऐसे अन्तर्तत्त्व की निर्विकल्प श्रद्धा करना, वह सम्यग्दर्शन है और वह श्रावकों का पहला लक्षण है तथा निज परमात्मतत्त्व का ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान है तथा उसमें लीनता, वह सम्यक्चारित्र है - ऐसे शुद्धरत्नत्रय परिणामों का भजन, वह भक्ति है। ऐसी भक्ति, श्रावकों तथा श्रमणों को होती है, यह रत्नत्रय का भजन, अर्थात् वीतरागीपरिणति ही सच्ची भक्ति है।
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