SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] श्रावकों तथा श्रमणों का कर्तव्य (परम भागवत श्री नियमसार के परमभक्ति अधिकार की १३४ वीं गाथा पर पूज्य गुरुदेवश्री का प्रवचन, वीर संवत् २४७८, माघ शुक्ल ४) मुनिराजों तथा श्रावकों को सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र के प्रति कैसी भक्ति होती है तथा वे रत्नत्रय की आराधना किस प्रकार करें? - उसका सुन्दर भाववाही विवेचन इस प्रवचन में है। श्री नियमसार का भक्ति अधिकार पढ़ा जा रहा है। भगवान आत्मा का भजन करना, उसका नाम भक्ति है। अन्तर में अखण्ड चिदानन्दी भगवान आत्मा का भजन करना, अर्थात् सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्र प्रगट करना, वही सच्ची भक्ति है और वहाँ बाहर के भगवान की भक्ति का शुभराग, वह व्यवहार भक्ति है। देखो! इस अधिकार में मुनि तथा श्रावकों दोनों की बात ली है। कोई ऐसा समझे कि मुनियों का धर्म दूसरा होगा और श्रावकों का धर्म दूसरा होगा - तो ऐसा नहीं है। मुनि हो या श्रावक हो, जितनी शुद्ध रत्नत्रय की आराधना, उतना धर्म है। श्रावक को भी राग से धर्म नहीं होता। जितना स्वभाव का आश्रयभाव, उतनी रत्नत्रय की भक्ति है और वही धर्म है। यहाँ आचार्यदेव ऐसी भक्ति का बहुत सरस वर्णन करते हैं - सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्र की श्रावक श्रमण भक्ति करे। उसको कहें निर्वाण-भक्ति परम जिनवर देव रे॥१३४॥ जो श्रावक अथवा श्रमण, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भक्ति करते हैं, उन्हें निर्वाण की भक्ति है - ऐसा जिनेन्द्र भगवन्तों ने कहा है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy