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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
करनेवाला जीव, स्वभावसन्मुख साधक हो गया, और अल्प काल में वह सिद्ध होगा। इस प्रकार साधकभाव की शुरुआत हो जाये ऐसे माङ्गलिक से आचार्य भगवान ने इस समयसार की शुरुआत की है, वह आज फिर से नौवीं बार प्रवचन में पढ़ा जा रहा है। (श्री समयसार गाथा १ पर पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचन में से )
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काम एक आत्मार्थ का.... ...... दूजा नहीं मनरोग
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समयसार का श्रवण करनेवाला पात्र शिष्य कैसा होता है ? श्री आचार्यदेव ने आत्मस्वभाव का जो एकत्वस्वरूप समयसार में समझाया है, उसे सद्गुरुगम से श्रवण करने का उसे अपूर्व उत्साह है... जोश है... रुचि है । अनन्त - पूर्व काल में नहीं सुना था - ऐसे अपूर्व भाव से वह आत्मा के एकत्वस्वभाव का श्रवण... परिचय... मन्थन करता है; इसलिए चौथी गाथा में कहा है कि 'एकत्वस्वभाव की बात जीवों ने कभी सुनी नहीं...' ऐसे प्रकार में से अब वह बाहर निकल गया है... और अब तो 'दर्शाऊँ तो करना प्रमाण' इस कथन के अनुसार वह अपने स्वानुभव से प्रमाण करने के लिये तैयार हुआ है। उसने ज्ञानी की उपासनापूर्वक एकत्वस्वभाव का ' श्रवण' किया है... उसकी रुचि से हाँ पाड़कर बारम्बार 'परिचय' किया है... और छठवीं गाथा में दर्शाये गये 'भगवान ज्ञायकस्वभाव' का 'अनुभव' प्रगट करने के लिये वह कटिबद्ध हुआ है।
ऐसा सुपात्र जीव, समयसार का श्रोता है और वह अल्प काल शुद्धात्मा को प्राप्त करता है । अहो ! सन्तों की कृपा से जो दुर्लभ, वह उसे सुलभ हुआ है। (श्री समयसार, गाथा- ४, ५, ६ के प्रवचनों से )
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