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________________ www.vitragvani.com 12] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 __ इस जीव को परवस्तुएँ किंचित् भी शरणभूत नहीं है परन्तु 'मुझे परवस्तुएँ शरणभूत नहीं हैं और उनमें मेरा सुख नहीं है' - ऐसा अज्ञानी को मूढदृष्टि से दिखता नहीं है। स्वयं सदा ही परिपूर्ण भगवानस्वरूप अन्तर में स्थित है, उसे तो भूल ही जाता है और वर्तमान में अशुभ छोड़कर शुभपरिणाम करे, वहाँ तो स्वयं भरपूर होवें – ऐसा अज्ञानी को लगता है परन्तु श्रीगुरु कहते हैं कि भाई! पुण्य तेरा स्वरूप नहीं है; पुण्य किया इससे तेरे आत्मा की महत्ता नहीं है, तेरा आत्मा तो अभी ही पुण्य-पापरहित एकरूप ज्ञानभाव से भरपूर है, उसमें ही तेरा सुख है, वही तुझे उपादेय है। तू उसे भूलकर, पुण्य-पाप में तेरा एकत्व मान रहा है और उसमें सुख मानता है परन्तु भाई! इस विपरीत मान्यता से तो करोड़ों काले बिच्छु के डंक की वेदना से भी अधिक दुःख की वेदना तू भोग रहा है; इसलिए शुद्धस्वभाव के अभ्यास द्वारा इस मान्यता को छोड़ तो सम्यग्दर्शन होने पर तुझे परम सुख का वेदन होगा। जो शुभ या अशुभपरिणाम होते हैं, वे आत्मा के मूलस्वरूप में नहीं परन्तु पर्याय में ऊपर-ऊपर होनेवाले विकारभाव हैं और ऊपर-ऊपर होनेवाले भावों जितना आत्मा को न मानकर, तू अन्तर के मूलस्वरूप को देख। जैसे समुद्र के पानी में कहीं मलिन लहर दिखायी दे परन्तु कहीं पूरा समुद्र मलिन नहीं है; क्षणिक मलिन लहर सम्पूर्ण समुद्र को मलिन करने में समर्थ नहीं है, मलिन लहरों के समय भी समुद्र तो निर्मल है; इसी प्रकार यह आत्मा, चैतन्य समुद्र है, इसकी वर्तमान दशा में जो मलिनता दिखती है, वह क्षणिक है, सम्पूर्ण आत्मस्वरूप मलिन नहीं है; आत्मस्वरूप तो शुद्ध एकरूप है। क्षणिक विकार होता है, वह भाव सम्पूर्ण शुद्धस्वरूप Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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